निर्देशन का अर्थ, परिभाषा व प्रकृति तथा विस्तार । शैक्षिक निर्देशन के कार्य।

 

निर्देशन का अर्थ, परिभाषा

निर्देशन का अर्थ (Meaning of Guidance) - 

निर्देशन का अर्थ है निर्देश देना। यह आदेश से भिन्न है। आदेश में अधिकार होता है और निर्देशन में सलाह। अत: निर्देशन के विषय में कहा गया है- यह किसी बालक या व्यक्ति को दी जाने वाली सलाह या सहायता है। यह सलाह या सहायता नैतिक, आध्यात्मिक तथा व्यावसायिक क्षेत्र में बड़ों द्वारा छोटों को दी जाती है।(It is help or advice given to a subject e.g. a child or a young person, especially by a person in authority : Moral spiritual and vocational.)


निर्देशन अपनी प्रारम्भिक अवस्था में मात्र व्यवसायपरक समस्याओं से सम्बद्ध था। इसका मूल उद्देश्य युवकों के लिए नौकरियों की व्यवस्था करना था। युवकों को अधिक से अधिक काम-धन्धे में लगाने के पीछे मन्तव्य यह था कि उनमें बढ़ती हुई बाल-आपराधिक प्रवृत्ति पर 

नियन्त्रण पाया जा सके। स्कूल तथा कालेजों में पढ़ने वाले छात्रों के पास अपने खाली समय को व्यतीत करने का कोई उचित कार्यक्रम न होने के कारण, उनमें बाल-अपराधी गुणों का विस्तार हो रहा था। अत: इस खाली समय के लिए किसी व्यवसाय की व्यवस्था करने के ध्येय, से निर्देशन का प्रसार किया गया।

लेकिन कालान्तर में, निर्देशन केवल व्यावसायिक क्षेत्र तक सीमित न रहा। इसके अन्तर्गत व्यक्ति के जीवन के सभी पक्षों को समुचित स्थान दिया जाने लगा। निर्देशन का क्षेत्र व्यक्ति तथा समाज के अन्त:क्रियात्मक सम्बन्धों तक विकसित हो गया। निर्देशन इस प्रकार की सहायता बन गया जिससे कि व्यक्ति, व्यक्तिगत रूप से सन्तुष्टिपूर्ण एवं सामाजिक रूप में प्रभावपूर्ण, जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सके।

शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत निर्देशन की प्रक्रिया सर्वांगीण विकास की दृष्टि आवश्यक है। आर. एच. मैथ्यूसन ने निर्देशन के व्यापक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखा है निर्देशन एक व्यवस्थित, निरन्तर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जो छात्रों की विशेष आवश्यकताओं और विद्यालय में प्रगति सम्बन्धी समस्याओं के समाधान एवं उनकी वैयक्तिक-सामाजिक सम्बन्धों तथा शैक्षणिक-व्यावसायिक रुझानों के विकास में सहायक होती है। 

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निर्देशन की परिभाषाएँ (Definitions of Guidance) 

प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा दी गई निर्देशन की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-

1. गुड के अनुसार - निर्देशन व्यक्ति के दृष्टिकोणों एवं उसके बाद के व्यवहार को प्रभावित करने के उद्देश्य से स्थापित, गतिशील आपसी सम्बन्धों का एक प्रक्रम है। इस परिभाषा में व्यक्ति के जीवन में सफलता हेतु उचित दृष्टिकोण एवं वांछनीय व्यवहार को विकसित करने में सहायक आपसी सम्बन्धों पर विशेष ध्यान दिया गया है। इन सम्बन्धों का विकास समुचित निर्देशन द्वारा ही सम्भव हो सकता है।

2. जे. एम. बीवर (J.M. Brewer)- निर्देशन एक ऐसा प्रक्रम(Process) है जो व्यक्ति में अपनी समस्याओं को हल करने में स्वयं निर्देशन की क्षमता का विकास करता है।

3. लीफिवर, टसेल और विटिजल - “निर्देशन एक शैक्षिक सेवा है जो विद्यालय में प्राप्त दीक्षा का अपेक्षाकृत अधिक प्रभावशाली उपयोग करने में विद्यार्थियों की सहायता प्रदान करने के लिए आयोजित की जाती है।"

4. जी.ई. स्मिथ ने 'गाइडैन्स' शब्द पर आपत्ति करते हुए ‘गाइडैन्स सर्विसेज' शब्द को उचित बताया है। उसने 'निर्देशन प्रक्रिया' शब्द को वरीयता प्रदान करते हुए 'निर्देशन सेवाओं' की परिभाषा इस प्रकार दी है : “निर्देशन प्रक्रिया सेवाओं के उस समूह से सम्बद्ध है जो व्यक्तियों को विभिन्न क्षेत्रों में सन्तोषजनक व्यवस्थापन के लिए आवश्यक पर्याप्त चयन, योजना एवं व्याख्या के लिए अपेक्षित अवस्थाओं एवं ज्ञान को प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है।"

इसी से मिलती-जुलती परिभाषा कैरोल एच. मिलर ने की है, “निर्देशन सेवाओं का सम्बन्ध विद्यालय के सम्पूर्ण कार्यक्रमों के अन्तर्गत आने उन संगठित क्रिया-कलापों से है जो विद्यार्थियों के वैयक्तिक विकास की आवश्यकताओं में सहयोग देने के उद्देश्य से आयोजित किये जाते हैं।" इस परिभाषा में विद्यार्थियों की व्यक्तिगत विकास सम्बन्धी आवश्यकताओं में सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से आयोजित एवं संगठित क्रिया-कलापों को निर्देशन सेवा की आधारभूत बातें बताया गया है।

स्टूप्स और वालक्चिस्ट ने सभी परिभाषाओं का सार इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

“निर्देशन व्यक्ति के, अपने लिए एवं समाज के लिए अधिकतम लाभदायक दिशा में, उसकी सम्भावना अधिकतम क्षमता तक विकास में सहायता प्रदान करने वाला निरन्तर चलने वाला प्रक्रम है।"

इस परिभाषा में व्यक्ति के अधिकतम सम्भावित विकास को ध्यान में रखा गया है। साथ ही विकास की दिशा व्यक्ति एवं समाज दोनों को ध्यान में रखकर निर्धारित करने को कहा गया है। निर्देशन केवल सहायता प्रदान करने वाली प्रक्रिया का नाम है और यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है।

5. डेविड वी.टिडेमैन - “निर्देशन का लक्ष्य लोगों को उद्देश्यपूर्ण बनने में, न कि केवल उद्देश्यपूर्ण क्रिया में, सहायता देना है।" दूसरे शब्दों में व्यक्ति को ऐसा निर्देशन दिया जाय कि वह अपने जीवन के लक्ष्य और उद्देश्य को भली-भाँति समझ सके और फिर उन लक्ष्यों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करे।

6. मैथ्यूसन ( Mathewson) ने “निर्देशन के शैक्षिक और विकासात्मक पक्षों पर बल देते हुए अधिगम की प्रक्रिया के सन्दर्भ में इसको महत्वपूर्ण बताया है।' दूसरे शब्दों में निर्देशन द्वारा ऐसी अधिगम की प्रक्रिया की व्यवस्था की जाय जिससे कि बालक की शैक्षिक और। विकासात्मक कठिनाइयाँ दूर हों।

7. बरनार्ड और फुलमर ने निर्देशन की व्याख्या करते हुए लिखा है : "निर्देशन की अन्तर्गत वे सभी क्रियाएँ आ जाती हैं जो व्यक्ति की आत्म-सिद्धि में सहायक होती हैं।"


स्टीफेलरी तथा स्टीवार्ट ने निर्देशन की विस्तृत परिभाषा दी है- “निर्देशन समस्या-समाधान चयन एवं समायोजन निर्धारण हेतु एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को दी गयी सहायता है। निर्देशन का लक्ष्य ग्रहणकर्ता में अपनी स्वतन्त्रता तथा अपने प्रति उत्तरदायित्व की भावना का विकास है। यह एक सार्वभौमिक सेवा है जो कि केवल शिक्षालय या परिवार तक सीमित नहीं है। यह जीवन के सभी पक्षों-घर, व्यापार, उद्योग, शासन, सामाजिक- जीवन, चिकित्सालय कारागार में व्याप्त है, वास्तव में इसका अस्तित्व उन सभी स्थानों में है जहाँ व्यक्ति है जो कि सहायता चाहते हैं और जहाँ ऐसे लोग हैं जो सहायता दे सकते हैं।" 

निर्दशन की यह परिभाषा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। व्यक्ति अपनी निहित शक्तियों का विकास करके अपने वास्तविक स्वरूप से, जो कि यथार्थ में आध्यात्मिक है, परिचित हो। आत्म-सिध्दि(Self-realization) के इस कार्य को सम्भव तथा सुगम बनाना निर्देशन का वास्तविक कार्य है।

स्पष्ट है- निर्देशन मानव को विकास की देने वाली प्रक्रिया है। यह जहाँ जीवन की राह सरल बनाती है, वहीं पर यह मनुष्य के सर्वांगीण विकास के व्यवस्थित करती है। निर्देशन विकास के व्यापक स्वरूप को दर्शाने का प्रयास है। निर्देशन एक सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक प्रक्रिया है।


निर्देशन का विस्तार ( Scope of Guidance) -

निर्देशन का जीवन में स्वतन्त्र कोई स्थान नहीं है। यह तो मात्र एक प्रक्रम है जिसका उद्देश्य सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए व्यक्ति के वांछित विकास में सहायता पहुँचाना है। यह प्रक्रिया निरन्तर गतिशील रहती है। निर्देशन में व्यक्ति को इस प्रकार सहायता पहुंचाई जाती है : व्यक्ति स्वयं को समझे, उसकी क्षमताओं, रुचियों तथा अन्य योग्यताओं का अधिकतम सम्भावित उपयोग उसके विकास में हो सके। अपने समय के परिवेश में आने वाली विभिन्न परिस्थितियों में यह अपना समायोजन कर सकें। व्यक्ति स्वतंत्र रूप से अपनी समस्याओं का समाधान खोजने एवं विभिन्न परिस्थितियों में बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय ले सके। अपनी अधिकतम सम्भावित क्षमता के अनुसार समाज को अनूठा योगदान दे सके।

यही निर्देशन का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आधार भी है। यह व्यक्ति को मानव-व्यवहार और सामाजिक दायित्व को बोध कराता है। निर्देशन की प्रकृति को उसके कार्यों के सन्दर्भ में भली-भाँति समझा जा सकता है।

(शैक्षिक निर्देशन के कार्य)  

जेरान तथा रिक्सियो के अनुसार , निर्देशन(शैक्षिक निर्देशन) निम्नलिखित आठ कार्य करते हैं

(1) व्यक्ति को अपनी योग्यताओं, अभिरुचियों, रुचियों तथा अभिवृत्तियों की जानकारी प्राप्त करने में सहायता पहुँचाना। 

(2) व्यक्ति की सहायता इस उद्देश्य से.करना कि वह अपनी मानसिक प्रवृत्तियों को समझे, स्वीकार करे और उन्हें काम में लाए। 

(3) अपनी मानसिक क्षमताओं के सन्दर्भ में व्यक्ति अपनी आकांक्षाओं को जान सके, उस कार्य में उसकी सहायता करना।

(4) व्यक्ति को ऐसे अवसर उपलब्ध कराना जिससे कि वह अपने कार्य-क्षेत्र एवं शैक्षिक प्रयासों के विषय में और अधिक सीख सके। 

(5) वांछित मूल्यों के विकास में व्यक्ति की सहायता करना। 

(6) व्यक्ति को ऐसे अनुभव प्राप्त करने में सहायता करना जो कि उसकी निर्णय शक्ति में वृद्धि करते हैं। 

(7) व्यक्ति की इस प्रकार सहायता करना कि वह इतना अच्छा आदमी बन जाय जितनी कि उसमें क्षमता है। 

(8) व्यक्ति को अधिक से अधिक आत्म-निर्देशित बनने में सहायता देना।

अत: यह स्पष्ट है कि निर्देशन के अन्तर्गत व्यक्ति की सहायता इस प्रकार करना है कि वह यथासम्भव अपनी दृष्टियों से अपनी क्षमताओं का विकास कर सके।

निर्देशन व्यक्ति में निहित सम्भावनाओं के अनुसार उसके पूर्ण विकास पर बल देता है। निर्देशन की प्रक्रिया का सम्बन्ध जीवन से है. और जीवन में व्यक्ति के विकास में औपचारिक(Formal) एवं अनौपचारिक (Informal) दोनों प्रकार के सर्पकों का योगदान रहता है। इसलिए निर्देशन भी दोनों प्रकार का हो सकता है- औपचारिक अथवा अनौपचारिक। अनौपचारिक निर्देशन व्यक्ति अपने मित्रों एवं सम्बन्धियों से प्राप्त करता है और औपचारिक निर्देशन विद्यालय के अन्दर प्रदान की जाने वाली निर्देशन सेवा एवं समाजसेवी संगठनों तथा व्यावसायिक स्तर पर संगठित निर्देशन सेवाओं के द्वारा प्राप्त होता है। दोनों प्रकार का निर्देशन व्यक्ति के विकास में सहायक होता है।


निर्देशन की प्रकृति (Nature of Guidance) 

मानव समाज के आरम्भ से लेकर अब तक के विकास पर दृष्टिपात करें तो हम पायेंगे कि व्यक्ति का जीवन इतना जटिल कभी नहीं रहा, जितना कि आज है। जन्म के बाद व्यक्ति ज्यों-ज्यों समाज के सम्पर्क में आता है, वह अपने को समस्याओं से घिरा हुआ पाता है। घर में विद्यालय में, समाज में और अपने रोजाना के कार्यों में प्राय: वह निर्देशन की आवश्यकता का अनुभव करता है। जीवन की छोटी-सी अवधि में समाज के विकास के सारे अनुभवों को दोहरा पाना न तो सम्भव ही और न ही व्यावहारिक ही।

अत: व्यक्ति के समुचित विकास एवं समाज के मध्य समायोजन के लिए निर्देशन एवं परामर्श पर काफी बल दिया जा रहा है।


निर्देशन व्यक्ति को बुद्धिमत्तापूर्ण चयन एवं समायोजन के लिए दी गयी एक प्रकार की सहायता है। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि सभी व्यक्तियों को अपना जीवन व्यतीत करने की शैली को चुनने का अधिकार है। यह चयन दूसरों के अधिकार क्षेत्र में अवरोध उत्पन्न करने वाला नहीं होना चाहिये। चयन की यह योग्यता न तो जन्मजात होती है और न ही मूल प्रवृतिजन्य। इस योग्यता का भी अन्य योग्यताओं के साथ विकास होता है। 

अतः शिक्षा की एक महत्वपूर्ण भूमिका, चयन योग्यता के विकास में व्यक्ति को सक्षम बनाना है। शिक्षाविद् भी निर्देशन को शिक्षा के एक अभिन्न अंग के रूप में ही स्वीकार करते हैं और शिक्षित कार्यों में इसे महत्वपूर्ण मानते हैं निर्देशन के अंतर्गत व्यक्ति के चयनों को निरूपित नहीं किया जाता वरन् इसे मात्र सहायता प्रदान की जाती है जिससे कि व्यक्ति ने स्वतंत्र निर्णय लेने की प्रवृत्ति तथा अपने लिए 'चुनने की योग्यता' विकसित हो। 

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