भक्तिकाल- परिचय, विशेषताएँ, पृष्ठभूमि तथा भक्तिकालीन काव्य प्रवृत्तियाँ।

प्र.1) भक्तिकाल का परिचय दीजिए?


उत्तर: हिन्दी साहित्य के इतिहास के मध्यकाल को विद्वानों ने दो भागों में विभक्त किया है- पूर्व मध्यकाल या उत्तर मध्यकाल । पूर्व मध्यकाल का नामकरण विद्वानों ने भक्तिकाल किया है। चौदहवीं शताब्दी के बाद जो हिन्दी साहित्य रचा गया, उसमें अधिकांश साहित्य की मूल प्रेरणा भक्ति भावना रही। इस समय समाज में फैली संकीर्णता, कट्टरता, उच्छंखलता से समाज का बचाने का प्रयत्न कवियो ने भक्ति के माध्यम से किया ।

जिसने आगे युग चेतना का रूप धारण किया। इन्हीं परिस्थितियों में हिन्दी में भक्ति साहित्य का आविर्भाव हुआ। भक्तिकाल तक आते-आते हिन्दी भाषा ने अपने स्वरूप को स्थापित कर लिया था और उसका साहित्य पंजाब से बंगाल और देहरादून से रायपुर, बिलासपुर से भी आगे दक्खिनी हिन्दी में दक्षिण के द्वार तक प्रसारित हो रहा था। वीरगाथा काल में जिन मुसलमान आक्रमणकर्ताओं से भारतीय जनता आतंकित हो रही थी, भक्तिकाल आते-आते वे विदेशी मुसलमान यहाँ पैर जमा चुके थे, शासक भी बन गए थे। अपने-अपने आराध्य के स्मरण के अतिरिक्त सामान्य जनों के पास अन्य कोई चारा नहीं रह गया था, अत: वे भगवद् भक्ति की शरण में जाने लगे थे।

'भक्ति' इस काल में साहित्य का सबसे प्रमुख और सबसे ऊँचा स्वर है। कवियों से लेकर आम जनता भक्ति में ही शक्ति के स्वर सुनने लगी। भक्ति की मंदाकिनी में सारा देश ही जैसे स्नात हो उठा। भक्ति का समुद्र ही जैसे जगह-जगह तरंगायित होकर भक्ति के वातावरण से दिशाएँ गुंजायमान करने लगा। 


प्र.2) भक्तिकालीन काव्य की प्रवृत्तियाँ बताइये? 


उत्तर: भक्तिकालीन काव्य की प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित है:

1) भक्ति-भावना- भक्तिकालीन काव्य में भक्त कवियों की अपने-अपने इष्टदेव के प्रति भक्तिभावना की ही प्रधानता रही। सभी भक्त कवियों ने अपनी भक्तिमय काव्य साधना से अपने इष्टदेव रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने का अथक प्रयास किया । इस प्रकार इस काव्य-धारा में भक्ति का ही आधार अपार और अद्भुत क्षेत्र दिखाई देता है।


2) गुरू महिमा - भक्तिकाल के सभी कवियों ने गुरू-महिमा को अत्यधिक महत्व दिया है। कबीरदास ने तो गुरू-महिमा को सर्वाधिक स्थान दिया है।


3) नाम-महिमा- सभी भक्त कवियों ने अपने-अपने इष्टदेव के नाम-महिमा का उल्लेख अवश्य किया है। इसे उन्होंने प्रेरणा दायक रूप में चित्रित किया है। सगुण कवियों ने भी निर्गुण भक्त कवियों के समान ही नाम को साकार ब्रह्म से भी बड़ा माना है। 


4) लोक-कल्याण की भावना- मध्यकालीन भक्त कवियों ने अपनी रचनाओं में लोक कल्याण की ओर अपना ध्यान अपेक्षित रूप में दिया। 


5) प्रेम-भावना की प्रधानता- भक्तिकालीन कवियों ने ईश्वर के प्रति अपनी सच्ची प्रेम-भावना को गंभीरता पूर्वक व्यक्त किया है। 


6) सामाजिक विडम्बना का विरोध- भक्तिकालीन सभी कवियों में मुख्य रूप से कबीरदास ने सामाजिक विषमता और विडम्बना का घोर विरोध किया है। 


7) बाह्याडम्बरों का विरोध- भक्तिकालीन कवियों में विशेष रूप से निर्गुण काव्य-धारा के कवियों ने सामाजिक बाह्याडम्बरों को फटकारा है। 


8) विभिन्न मत-सिद्धान्तों के प्रभाव- भक्ति काव्य-धारा में विभिन्न मत सिद्धान्त प्रवाहित हुए हैं। 


9) रस, छन्द, अलंकार, विम्बाप्रतीक योजना- भक्तिकालीन कवियों की रचनाओं में विमिन्न प्रकार के रसों, छन्दों, अलंकारों, बिम्बों, प्रतीक-योजनाओं के

दर्शन होते हैं। 


10) भाषा-शैली-इस काल की भाषा की शब्दावली की विविधता और अनेकरूपता सार्थक और उपयुक्त रूप में है।


प्र.3) भक्तिकाल की पृष्ठ भूमि स्पष्ट कीजिए? 


उत्तर: वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमारे देश में भक्तिकाल के उदय होने पर विभिन्न परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं। भक्तिकाल की विभिन्न परिस्थितियाँ इस प्रकार रही-


1) राजनीतिक पृष्ठभूमि (परिस्थितियाँ)- इस काल में पूरे देश में राजनीतिक अस्थिरता आ गई थी। हिन्दु राजाओं की शक्ति नष्ट हो गई थी, उत्तर भारत  की तरह दक्षिण भारत भी मुसलमानों के आक्रमण का शिकार होने लगा। अलाउद्दीन खिलजी के समस्त उत्तर भारत पर अधिकार कर लेने से दक्षिण के कुछ हिन्दु राजा भी उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे। सम्पूर्ण भारत हिन्दु राजाओं के आपसी फूट के कारण पठान, लोदी और मुगल इन तीन वंशो के साम्राज्य का विस्तार होता रहा।

पन्द्रहवीं शती में कुछ हिन्दु राजा उभर आये थे। 16 वीं शताब्दी में बाबर के आक्रमण के समय राणा सांगा और विजय नगर के राजा कृष्णदेव राय महान हिन्दु राजा थे। अकबर के समय महाराणा प्रताप अपनी मान-मर्यादा के लिए सब कुछ न्यौछावर कर अंत तक अकबर के सामने नहीं झुके। इस युग के कुछ मुस्लिम शासकों ने हिन्दुओं पर अत्यधिक अत्याचार किए, तो अकबर अपनी उदारता के लिए लोकप्रिय रहा।


2) सामाजिक पृष्ठभूमि (परिस्थितियाँ)-धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों के प्रभाव से हिन्दू समाज बड़ा ही दयनीय हो चला था। वह न केवल जाती धर्म रूपी सम्प्रदाय और मतों को विभिन्नता और विषमता का शिकार हो रहा था, बल्कि करों के बोझ, आर्थिक अभाव और असमानता का भी उसे घोर कष्ट हो रहा था। विलासी मुसलमानों की सस्ती रसिकता से बचने के लिये पर्दा-प्रथा और बाल विवाह की प्रथा चल पड़ी थी। इस प्रकार हिन्दू समाज जाति-पाँति की कट्टर जकड़ में बंध चुका था। हिन्दुओं में परस्पर सामाजिक असमानता के बावजूद भी वास्तुकला, चित्रकला, धर्म और काव्य के क्षेत्रों में परस्पर आदान-प्रदान हुआ। 


3) धार्मिक पृष्ठभूमि (परिस्थितियाँ)- इस काल में भक्ति-आन्दोलन का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। आचार्य शुक्ल के अनुसार "क्रमश: भक्ति का प्रवाह ऐसा विस्तृत

और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिन्दु जनता ही नहीं, देश में बसने वाले सहृदय मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गये थे। प्रेम स्वरूप ईश्वर को सामने लाकर भक्त कवियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों के भेदभाव के दृश्यों को हटाकर पीछे कर दिया।"

दक्षिण में आलावार सन्तों ने भक्ति का प्रचार किया। राम और कृष्ण की कल्पना करके राम और कृष्ण-भक्त कवियों ने क्रमश: रामोपासक और कृष्णोंपासक भक्तों की परम्परा का विकास आरम्भ किया । उधर भारतीय अद्वैतवाद के सम्पर्क में आने पर सूफी कवियों ने हिन्दु नायकों की प्रेमकथाओं को लेकर मसनवी शैली में काव्य रचना आरम्भ की। यह काव्यधारा प्रेममार्गी या

प्रेमाश्रयी शाखा के रूप में भक्तिकाल में लोकप्रिय हुई।


4) साहित्यिक पृष्ठभूमि (परिस्थितियाँ)- भक्ति की प्रेरणा से आयी साहित्यिक पृष्ठभूमि विविध प्रकार की रही । इसका लक्ष्य आदर्शमयी भक्ति-भावना का ही रहा । यह एक साथ हृदय, आत्मा और मन की भूख को शान्त करने के साथ-साथ लोक और परलोक को भी एक साथ स्पर्श करने वाला रहा। इस प्रकार इसने मनुष्य जीवन के लिये एक नया मार्ग प्रदान किया।

इस काल में एक और उर्दू-फारसी और अरबी भाषा साहित्य की रचनाएँ हुई, तो दूसरी और संस्कृत और हिन्दी की भी हुई।

समाज में प्रचलित रूढ़ियों के विरोध तथा सूफियों की प्रेम भावना ने सन्त मत एवं सन्त काव्य के प्रवर्तन की प्रेरणा प्रदान की। जीवन की निराशा एवं असहायता के परिणामस्वरूप जन सामान्य का ध्यान ईश्वर की अमोघ शक्ति एवं करूणा की और गया एवं फलस्वरूप भक्तिभावना का आविर्भाव हुआ। संक्षेप में 

यही कहा जा सकता है कि भक्तिकाल का प्रादुर्भाव तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और दार्शनिक परिस्थितियों की प्रेरणा से हुआ।


प्र.4) भक्तिकाल की विशेषताएँ बताइये? 


उत्तर: भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है:

1) स्वान्तः सुखाय काव्य रचना- भक्तिकाल में चार शाखाएँ अवश्य रहीं। किन्तु उसमें कुछ समान भावनाएँ थी, जिनके कारण वे सब एक सम्मिलित नाम से पुकारी जा सकती हैं। सभी ने अपने हृदय की प्रेरणा से लिखा, किसी को प्रसन्न करने के लिए नहीं। अस्तु यह कहना निर्विवाद होगा कि भक्ति काव्य के साहित्यकार का कविता सम्बन्धी दृष्टिकोण अत्यन्त उदात्त रहा है। अत: यह स्वामिनः सुखाय' न होकर 'स्वान्त: सुखाय' तथा 'सर्वान्त: सुखाय' सिद्ध हुआ। 


2) भावपक्ष और कलापक्ष का सार्थक समन्वय- भक्तिकालीन साहित्य में भावपक्ष और कलापक्ष का मणिकांचन संयोग हुआ है । उन्हें पृथक करना सहज कार्य नहीं है। इस काल के साहित्य का अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष सन्तुलित, सशक्त और परस्पर पोषक है। इसलिए भक्तिकाल आम जनता और साहित्य के मर्मज्ञों के लिए प्रशंसनीय सिद्ध हुआ। 


3) काव्यरूपों की विविधता- भक्तिकाव्य की चौथी विशेषता उसके मूल में स्थित समन्वय की भावना है । भक्तिकाल में ऐसी भावनाओं की उद्भावना हुई, जिनका इस्लाम धर्म से कोई विरोध न था। फलत: इस काल में भक्ति की जो धारा प्रवाहित हुई उसमें केवल हिन्दु ही नहीं, अनेक सहृदय मुसलमान भी स्नान कर सुख का अनुभव करने लगे। रहीम और रसखान के नाम इस सम्बन्ध में सहज ही स्मरणीय हैं। 


4) भारतीय संस्कृति का चित्रण- भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता और आचार-विचार सभी कुछ भक्तिकाव्य के सुन्दर एवं सुदृढ़ कलेवर में सुरक्षित हैं।

मध्यकालीन भारतीय संस्कृति के अवलोकन के लिए मध्यकाल का अनुशीलन आवश्यक है। आधुनिक भारतीय धर्म और संस्कृति गोस्वामी तुलसीदास द्वारा निर्मित है। तुलसी का 'मानस' 'नानापुराण- निगमागम' का सार है। उन्होंने भक्तिज्ञान और कर्म की समन्वयात्मक त्रिवेणी से मृतप्राय राष्ट्र के शरीर में अमर

प्राणों का संचार किया। 


5) भक्ति-भावना का प्राधान्य- भक्तिकाल के सभी भक्त कवियों के काव्य का विषय भक्ति है। इनकी भक्ति भावना में साम्प्रदायिक संकीर्णता नहीं है । इन्होंने ही एक विषय "भक्ति' को अपनी-अपनी रूची, चिन्तन और भावना के अनुसार विविध प्रकार के अनुभव करते हुए अनेक काव्य रूपों और शैलियों में

व्यक्त किया है। 


6) नाम की महत्ता- जप, कीर्तन और भजन के रूप में भगवान का स्मरण निर्गुण और सगुण भक्तों में समान रूप से पाया जाता है। सूफियों और कृष्ण भक्तों में कीर्तन का प्राधान्य रहा है। सूर ने गाया है- "भरोसौ नाम को भारी' तुलसी ने भी राम के नाम को राम से बड़ा माना है। नाम में निर्गुण और सगुण दोनों का

समन्वय हो जाता है। 


7) सत्संगति की महिमा- भक्तिकाल के निर्गुण और सगुण दोनों ही कवियों ने सत्संगति को महत्व दिया है। तुलसी ने कबिरा संगति साधु की, हरै और की व्याधि' तथा सूर ने 'तजौ मन हरि विमुखन कौ संग' कहकर सत्संगति का महिमा का बखान किया है।


8) लोकरंजन और लोक कल्याण- इस युग के सभी कवियों ने जहाँ धार्मिक आदशों की प्रतिष्ठा कर लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया. वहीं वे जीवन में सौन्दर्य पक्ष पर भी पैनी दृष्टि रखते हैं। वस्तुत: भक्तिकाल मर्त्य और अमर्त्य का अनूठा सहयोग है।

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