कबीर की व्याख्या। कबीर के दोहे की व्याख्या सन्दर्भ सहित।

 कबीर की व्याख्या

                           (1)
                   गुरूदेव कौ अंग 
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार। 
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ।। 1 ।।
राम नाम के पटंतरे, देबे कौ कछु नाहिं। 
क्या ले गुर सन्तोखिए, हौंस रही मन माहिं ।। 2 ।।
सतगुरू सांचा सूरिबाँ, सवद जु बाह्या एक। 
लागत ही मैं मिल गया, पड्या कलेजे छेक || 3 ||
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट। 
पूरा किया बिसाहुणां, बहुरि न आवों हट्ट ॥ 4 ॥
जाका गुरू भी अंधला, चेला खरा निरंध ।
अंधे अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पड़ंत ॥ 5 ॥ 


संदर्भ- मध्यकालीन हिन्दी साहीत्य के भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा के प्रमुख संत कवि कबीर द्वारा रचित साखियों से प्रस्तुत साखी अवतरित की गई हैं।

प्रसंग- एक साधक के जीवन में गुरू का बहुत महत्व होता है, कबीर ने गुरू के महत्व को कई साखियों में प्रतिपादित किया हैं । उस साखी में भी गुरू के महात्म्य का चित्रण हैं।

व्याख्या- कबीर कहते हैं कि जो सच्चा गुरू होता हैं, उसकी महिमा अनंत होती हैं, उसके द्वारा किये गये उपकारों की गणना नहीं की जा सकती हैं अर्थात्- सच्चा गुरू जैसी राह दिखाता हैं वैसा कोई और हो ही नही सकता। वह अपने शिष्य पर अनगिनत उपकार करता हैं । वह अपने शिष्य के ज्ञान - चक्षु खोलता हैं अर्थात अज्ञानी शिष्य को ज्ञान का प्रकाश प्रदान कर परमात्मा को समझने की दृष्टि प्रदान करता हैं । वह अनंत परमात्मा तब ही दिख सकता हैं, जब साधक के पास दिव्य दृष्टि होती हैं और यह दृष्टि सच्चा गुरू ही प्रदान करता है। 


काव्य सौंदर्य - 

i) 'अनन्त' में यमक अलंकार

ii) भाषा सधुक्कड़ी एवं सहज, सरल 

iii) छंद - साखी 

iv) रस - शांत 

v) लक्षणा शब्द शक्ति ।


                        (2) 
सतगुरु सांचा सूरिबाँ, सवद जु बाह्या एक।
लागत ही मैं मिल गया, पड्या कलेजे छेक ॥ 


प्रसंग- समाज सुधारक कबीर गुरु की महत्ता प्रकट करने के लिए उनके महात्म्य को प्रस्तुत करते हैं।

व्याख्या- कबीर का कथन है कि सच्चा गुरु ही सच्चा योद्धा है। उसने आक्रमण करते हुए एक शब्दरुपी शर (बाण) का प्रहार किया। उसके लगते ही मैं ईश्वर में लीन हो गया एवं उस शर ने मेरे ह्दय को बेध दिया। वह सीधा हृदय में ही आघात कर गया।

विशेष- भाषा सधक्कडी, शान्तरस, प्रसादगुण, लक्षणा शब्द शक्ति- में अनुप्रास एवं रुपक अलंकार है।


                          (3)
कबीर सुमिरणा सार है और सकल जंजाल ।
आदि अंति सब सोधिया, दूजा देखो काल ॥ 


सन्दर्भ- कबीर दास स्मरण की महत्ता का वर्णन करते हैं।

व्याख्या- कबीर का कथन है कि ईश्वर का स्मरण ही संसार का तत्व या सार है । अन्य सभी वस्तुएँ जंजाल या विडंबना है । मैंने प्रारम्भ से अंत तक खोज कर ली, शोध लिया। ईश्वर भजन के अतिरिक्त सभी क्रियाएँ काल स्वरुप है। सभी मिथ्या है। कहा भी है ब्रह्मसत्य जगत मिथ्या।

विशेष- सधुक्कडी भाषा, शान्तरस, प्रसाद गुण, लक्षणा, शब्द शक्ति, अनुप्रास।


                        (4)
हिरदा भीतरि दौं बलै, धुवाँ न परगट होइ।
जाकै लागी सो लखै कै जिहि लाइ सोइ ॥ 


प्रसंग- पूर्ववत् इस दोहे में उन्होंने यह भाव व्यक्त किया है कि सतगुरु के सदुपदेश द्वारा प्राप्त ज्ञान रुपी आग शिष्य-साधक के हृदय में प्रज्जवलित होती रहती है, किन्तु वह सामान्य लोगों को दिखाई नहीं देती है।

व्याख्या- कबीर कहते है कि शिष्य साधक के हृदय में सतगुरु के सदुपदेश की ज्ञानाग्नि प्रज्जवलित होती रहती है। किन्तु उसमें से धुआँ बाहर निकलाता नहीं दिखाई देता । उस आग को तो वह साधक देख सकता है, जिसके हृदय में वह प्रज्जवलित रहती है, अथवा वह गुरु समझ सकता है जिससे की उस ज्ञानग्नि की चिनगारी को फूंका होता है । एक कहावत है जाके न पटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई या सूरदास ने लिखा है कि जब गूंगा व्यक्ति गुड़ खाता है तो उसकी अनुभूति सुख या दु:ख की अनुभूति उसी को होती है वह इसे व्यक्त नही कर सकता।

विशेष- सधुक्कडी भाषा, विप्रलंभ श्रृंगार माधुर्य गुण, लक्षणा व्यंजना शब्द शक्ति।


                    (5)
अहेड़ी दो लाइया, मृग पुकारे रोइ।
जा वन में क्रीड़ा करी, दाँझत है बन सोई॥ 


संदर्भ- कबीर ने आखेटक का रुपक देते हुए, पीड़ा का वर्णन किया है।

व्याख्या- विरहिणी आत्मा पुकार रही है या गुहरा रही है कि आखेटक या शिकारी ने वन में आग लगा दी है। यह शिकारी हमारे विकार वासनाएँ अज्ञान इत्यादि हैं। इसका परिणाम स्वरुप मृग अर्थात आत्मा विलाप कर रुदन कर गुहार लगा रही है कि जिस वन या संसार में हम खेलते क्रीड़ा या आनन्द उत्सव करते रहते थे, चौकड़ी भरते थे वह वन या विश्व अब जला जा रहा है, दग्ध हो रहा है।

विशेष- सधुक्कडी भाषा, शान्त रस, प्रसाद गुण, लक्षणा व्यंजना है, रुपक अलंकार है - मृग आत्मा का प्रतीक है। दोहा - छन्द।


                              (6) 
                दुलहनी गावहु मंगलाचार । 
          हम घरि आये हो राजा राम भरतार । 
तन रवि करि मैं मन रति करि हूँ पंचतत बराती।
   रामदेव मोरे पाहुंने आये, मैं जोबन मैं माती। 


प्रसंग- प्रस्तुत पद में विवाह के रूपक से कबीर ने अपने प्रेम एवं आनंद को उकेरा हैं।

व्याख्या- कबीर कहते हैं कि मुझे अपने परम प्रिय परमात्मा के दर्शन हो गए हैं, वे स्वयं मुझे ब्याहने के लिये आए हैं। आत्मा का परमात्मा से मिलन होने जा रहा हैं। आनन्द में मग्न कबीर कहते हैं कि सभी मंगलगीत गाओ, क्योंकि मेरे घर मेरे प्रियतम परमात्मा का पदार्पण हुआ हैं। मैंने भी अपने तन-मन को श्रृंगारित कर लिया है। अर्थात आत्मा पूर्ण रूपेण तत्पर हैं अपने प्रिय से मिलने को। इस अद्भुत विवाह में पांचों तत्व बाराती के रूप में उपस्थित हैं। स्वयं परमात्मा मेरे घर अतिथि बनकर पधारे हैं, और मैं भी पूर्ण आनंद की मय में मदमाती हूँ। परमात्मा से मिलन के आनंद का अतिरेक है अत आत्मा खुशी में फूली नहीं समा रही है। एक अविनाशी पूर्ण पुरुष परमात्मा के संग आत्मा के विवाह का रूपक प्रस्तुत है। 

विशेष - 

1. पूरे पद में रूपक अलंकार है।            2.  छंद - पद

3. भाषा - सधुक्कडी.              4. लक्षणा शब्द शक्ति 

5. श्रृंगार रस 

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