सूरदास की व्याख्या। सूरदास के पदो की व्याख्या

 सूरदास की व्याख्या

                 (1) 
           उद्धव मन अभिलाष बढ़ायो। 
जदुपनि जोग जानि निय साँचो नयन अकास चढ़ायो॥
   नारिन पै मोको पठवत हो कहत सिखावन जोग। 
मनहों मन अब करत प्रसंसा हैं मिथ्या सुख-भोग ॥
आयसु मानि लियो सिर ऊपर प्रभु-आज्ञा परमान।
सूरदास प्रभु पठवत गोकुल में क्यों कहौं कि आन॥


सदंर्भ- भक्तिकाल की सगुण भक्ति के सुप्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवि सूरदास के सूरसागर के उद्धव संदेश से प्रस्तुत पद अवतरित किया गया हैं।

प्रसंग- श्री कृष्ण की बातें सुनकर उद्धव अपने ज्ञान - गर्व में ब्रज जाने के  लिए तैयार हो जाते हैं।

व्याख्या- कृष्ण कि प्रेम जनित विह्वलता देखकर उद्धव मन ही मन अत्यन्त आनन्दित हो उठे-हौंस से फूले न समाए । उन्होंने यह सोचा कृष्ण हमारे योग-मार्ग को सच्चा मार्ग समझने लगे हैं और इसी कारण वह मुझे गोपियों को ज्ञान सिखाने के लिए भेज रहे हैं। इन विचारों के कारण उद्धव गर्व के कारण अति आनन्दित हो उठे और हौंस से फूले न समाए । उन्होंने यह सोचा कि कृष्ण हमारे योग-मार्ग को सच्चा मार्ग समझने लगे हैं और इसी कारण वह मुझे गोपियों को ज्ञान सिखाने के लिए भेज रहे हैं। इन सब विचारों के कारण उद्धव गर्व के कारण ऊपर आकाश की ओर देखने लगे। वह मन ही मन अपनी और अपने सिद्धांतों की प्रशंसा करने लगे कि सचमुच सांसारिक भोग मिथ्या हैं अस्तित्वहीन हैं। अन्त में उन्होंने ब्रज-गमन सम्बन्धी कृष्ण की आज्ञा

को शिरोधार्य किया। सूरदास कहते हैं कि उद्धव ने सोचा कि जब स्वामी कृष्ण ही मुझे ज्ञानोपदेश के लिए गोकुल भेज रहे हैं, तब फिर मैं इस सम्बन्ध में और क्या बात करूँ अर्थात् आगा - पीछा क्यों करूँ?

अलंकार-

i) नयन आकाश चढ़ाओ- यह एक मुहावरा तो हैं ही साथ ही हैं असम्बन्ध में सम्बन्ध दिखाने के कारण अतिश्योक्ति अलंकार हैं।

ii) दितीय पंक्ति में अनुप्रास की छटा दर्शनीय हैं।


                            (2)
             काऊ आवत हैं तन स्याम । 
   वैसेइ पट, वैसिय रथ-बैठनि, वैसिय हैं उर दाम ॥ 
 जैसी हुतिं उठि तैसिय दौरी छाँड़ि सकल ग्रह-काम ।
रोम पुलक, गदगद भइँ तिहि छन सोचि अंग अभिराम ॥
  इतनी कहत आइ गए ऊधो, रहीं ठगी तिहि ठाम।
 सूरदास प्रभु त्या क्यों आबैं, बँधे कुब्जा-रस स्याम ॥ 


प्रसंग- उद्धव को ब्रज में देखकर गोपियाँ समझती हैं कि कृष्ण आए। इस पद में उक्त अवसर पर होने वाले गोपियों के आनन्दातिरेक का वर्णन हैं।

व्याख्या- उद्धव ब्रज में जैसे ही दिखाई पड़े, गोपियाँ उन्हें देखकर कहने लगीं कि कोई श्याम वर्ण शरीर वाला पुरूष आ रहा हैं। उसके वैसे ही वस्त्र हैं, रथ में बैठने का ढंग कृष्ण जैसा ही है और उनके वक्ष पर वैसे ही (कृष्ण जैसी ही) माला हैं। उन्हें देखकर गोपियाँ जैसी थी, उसी स्थिति में घर के काम-काज छोड़कर उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ीं । श्री कृष्ण के सुन्दर अंगों के स्मरण मात्र से ही उनका शरीर रोमांचित और पुलकायमान हो गया। इतने में ही वहाँ उद्धव आ गए। उन्हें देखकर वे गोपियाँ जहाँ थी, तहाँ जड़वत् खड़ी रह गई। (कारण स्पष्ट हैं मिलने तो आई थीं कृष्ण से मिल गया कोई अन्य व्यक्ति । इस निराशा का क्या कहना?) सूरदास कहते हैं कि वे गोपियाँ आपस में कहने लगी कि अब कृष्ण यहाँ क्यों आने लगे, वह तो वहाँ कुब्जा के प्रेम-पास में बँधे हए हैं। 

अलंकार

i) स्मरण ii) भ्रान्तिमान iii) चपलातिशयोक्ति 

विशेष

i) रोम, पुलक एवं स्तम्भ - सात्विक भाव का सुन्दर चित्रण हैं। 

ii) अन्तिम पंक्ति में कुब्जा के प्रति गोपियों के असूया संचारी भाव की सुन्दर व्यंजना है।


                               (3) 
                देन आये ऊधो मत नीको। 
आबहु री। सब सुनहु सयानी, लेहु सुजस को टीकौ ।
 तजन कहत अम्बर आभूषन, गेह नेह सब ही को। 
सीस जटा, सब अंग भस्म, अति सिखवत निर्गुन फीका।
  मेरे जान यहै जुवतिन को देत फिरत दुख पी को। 
तेहि सर-पंजर भये श्याम तन, अब न गहत डर जीको।               जाकी प्रकृति परी प्रनान सों सोच न माच भली को।
जैसे सूर ब्याल डसि भाजत का मुख परत अमी को।। 


व्याख्या-विरह में व्याकुल गोपी कहती हैं कि उद्धव हमें अच्छे विचार देने आये हैं, इसलिए हमें सभी को मिलकर यह अच्छी बात सुन लेना चाहिए। उद्धवजी हमें वस्त्र और आभूषण त्यागने की बात कहते हैं तथा घर और पुत्र प्रेम भी छोड़कर शरीर पर भस्म लगाकर सिर पर जटा धारण कर हमें निर्गुण की बात सिखाना चाहते हैं। मेरे ख्याल से तो युवतियों को वे यही शिक्षा दे रहे हैं और इसी श्राप के कारण इनका शरीर काला पड़ गया हैं। फिर भी इन्हें मन में तनिक भी भय नहीं हैं।

सूर कवि कहते हैं कि जिस व्यक्ति का जैसा स्वभाव पड़ जाता हैं, वह वैसा ही करता है और वह अच्छे बुरे का ख्याल नहीं करता है। जिस प्रकार से कि सर्प कितना ही रसपान करे, किन्तु उसका मुख कभी अमृत का नहीं हो सकता अर्थात् वह हमेशा जहर ही उगलेगा। 

i) बिप्रलम्भ श्रृंगार।       ii) द्वष्टान्त अलंकार ।


                               (4)
                अँखियाँ हरि दरसन की भूखी। 
      कैसे रहें रूपरस राँची ये बतियाँ सुनि रूखी। 
अवधि गनत इकटक मग जौबत तब नहींएती झूखी।            
अब इन जोग-संदेसन ऊधौ अति अकुलानी दूखी।
बारक वह मुख फेरि दिखाबो दुहि पय पिवत पतूखी।
   सूर सिकत हठि नाव चलाबौ ये सरिता है सूखी। 


प्रसंग- उद्धव के बारम्बार निर्गणोपासना और योग के उपदेश से गोपियाँ बहुत दुखी हो जाती हैं । वे बड़ी दीन होकर कहती हैं। कि हे उद्धव । तुम एक बार कृष्ण की छवि दिखा दो।

व्याख्या- हे उद्धव । तुम बारम्बार साग्रह निर्गणोपासना और योग का उपदेश दे रहे हो, किन्तु हमारी आँखे तो कृष्ण के दर्शन की भूखी हैं। ये कृष्ण की रसमयीं बातों और उनके रूप में पड़ी हई हैं। अत: तम्हारी नीरस बात सनकर किस प्रकार धैर्य धारण करें? कृष्ण के आगमन की अवधि गिनती हुई और निरन्तर मार्ग देखती हुई ये आँखें इतनी दुखी नहीं हुई थी, जितना कि तुम्हारा योग का सन्देश सुनकर अकुला रही हैं और दुखी हो रही हैं और अकुलाहट से भर रही हैं।

हे उद्धव । कृपा करके पत्तों की दोनी में दूध दूहकर पीते कृष्ण की वह मुख-छवि एक बार फिर दिखादो। अपना निर्गुण का उपदेश देकर तुम सूखी हुई नदी की बालू में नाव चलाने का व्यर्थ का प्रयास कर रहे हो। कृष्ण के वियोग में अश्रु बहाते हुए हमारा ह्रदय सूख गया हैं। उस पर तुम्हारी निर्गुणोपासना और योग का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। 

काव्य-सौन्दर्य

i) विप्रलम्भ श्रृंगार। 

ii) विकल्प, चिन्ता, उन्माद आदि संचारी भाव हैं।  

iii) रूप रस राँची में 'र' वर्ण की एक से अधिक बार आवृति होने से वृत्यानुप्रास । 'अति अकुलानी में छेकानुप्रास । पद…. पखारों में 'प' वर्ण की एक से अधिक बार आवृति होने से वृत्यानुप्रास। 'हठि…. सूखी' में रूपक अलंकार।

विशेष- गोपियाँ बड़े भोलेपन से उद्धव के निर्गुणोपासना और योग के उपदेश का खण्डन करती हैं।


                             (5) 
             विलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे। 
वह मथुरा कार्जार की कोठरि जे आवहि ते कारे॥
  तुम कारे, सुफलकसुत कारे-कारे मधुप भँवारे। 
तिनके संग अधिक छबि उपजत कमलनैन मनिआरे ।               मानहु नील माट तें काढ़े लै यमुना जलहिं पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर-स्याम गुन न्यारे ॥ 


प्रसंग- गोपियाँ कृष्ण 'अकूर' उद्धव और भ्रमर के काले रंग पर व्यंग्य करती हुई कहती हैं।

व्याख्या- गोपियाँ कहती हैं कि हे प्यारे उद्धव । तुम बुरा मत मानना । हमें ऐसा मालूम पड़ता हैं कि मथुरा काजल की कोठरी है। वहाँ से जो भी आता है,

वह काले रंग का होता हैं । देखो, तुम काले अकूर काले हो । इन सम्पूर्ण काले लोगों के साथ हमारे कमल-नेत्र कृष्ण जी और भी सुहावने लगते हैं।

तुम सबको देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो तुम सबके सब नीले रंग से भरे हुए मटके में पड़े हुए थे और किसी ने तुम सबको उसमें से निकाल कर यमुना के जल से धोने का प्रयत्न किया हैं । सूरदास कहते है कि गोपियाँ कहती । हैं कि तुम्हारे शरीर से छूटने वाले उस काले रंग के कारण की मानो यमुना का

जल काला हो गया हैं । इन काले लोगों के सब गुण अनोखे ही होते हैं। 

अलंकार-

i) 'मानहु----काढे में हेतूत्प्रेक्षा अलंकार।

ii) 'ता गुन---कालिंदी' में तद्गुण में अलंकार। 

iii) 'श्याम' में श्लेष अलंकार।

विशेष- काजर की कोठरी सुन्दर मुहावरा है। इसकी वह कहावत प्रसिद्ध हैं- काजर की कोठरी में कैसोहू सयानो जाय, एक लीक काजरि की लागी है पै लागी हैं । भाव यह भी हो सकता हैं । कि कृष्ण भले ही भले हों- परन्तु भूमि का भाव प्रमुख हैं। वहाँ पहुँच कर वह भी वैसे ही बन गये हैं।

अन्य -

कबीर की व्याख्या

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