तुलसीदास के पदों की व्याख्या। तुलसीदास जी के दोहे के अर्थ।

 तुलसीदास की व्याख्या


(1) 
गाइये गणपति जगबन्दन । संकर-सुवन,भवानी-नन्दन ॥
सिद्धी-सदन, गजबदन, विधायका कृपा-सिन्धु, सुन्दर, सबलायक ॥

मोदक-प्रिय, मुद मंगल दाता । विद्या-वारिधि, बुद्धि-विधाता ॥
माँ गत तुलसीदास कर जोरे । बसहिं रामसिय मानस मोरे ॥ 


सन्दर्भ- तुलसी विनय पत्रिका में गणेश की वन्दना कर रहे है।

व्याख्या- तुलसी का कथन है कि हाथी में मुखवाले गणेश की वन्दना करो। एक प्रश्न होता है कि उन्होने गणेश वन्दना से विनय पत्रिका क्यों प्रारंभ की उत्तर हैं कि गणेश की प्रथम पूजा ही शास्त्रों द्वारा मान्य है। वे प्रथम पूज्य हैं। श्री गणेशजी भगवान आशुतोष (शंकर) के पुत्र हैं एवं साथ ही पार्वती सुत भी हैं। श्री गणेशजी पर्वती के मानसपुत्र है। वे सिद्धि के कोश (खजाना) है (आठों सिद्धियों और नवों निधियों के स्वामी है) उनका एक नाम विनायक भी हैं वे कृपा या दया के सागर हैं, सलोन एवं सर्वयोग्य हैं। सभी दृष्टियों से योग्य है। उन्हें लड्डु या मोदक अत्यंत प्रिय है वे मोद (हर्ष) एवं कल्याण (मंगल) प्रदान करने वाले हैं। ज्ञान एवं विद्या के सागर या भण्डार है एवं बुद्धि के स्वामी है।

तुलसीदास उनसे धन संपत्ति की याचना नही करता है वह तो यह याचना करता है कि भगवान श्री राम एवं जानकी मेरे हृदय में निवास करें । तात्पर्य यह कि वे केवल राम एवं जानकी की भक्ति की कामना करते है।

विशेष- ब्रज भाषा, शान्त रस प्रसादगुण लक्षणा शब्द शक्ति, रुपक एवं अनुप्रास अलंकार का समावेश है।


(2)
बालरूपकी झाँकी

अवधेसके द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे ।
अवलोकि हौं सोच बिमाचनको ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से ॥

तुलसी मन-रंजन रंजित-अजंन नैन सुरवंजन-जातक-से।
सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरूह-से बिकसे ।।


एक सखी किसी दूसरी सखी से कहती हैं- मैं सबेरे अयोध्यापति महाराज दशरथ के द्वार पर गयी थी। उसी समय महाराज पुत्र को गोद में लिये बाहर आये । मैं तो उस सकल शोकहरी बालक को देखकर ठगी-सी रह गयी; उसे देखकर जो मोहित न हों, उन्हें धिक्कार हैं। उस बालक के अन्जन-रन्जित मनोहर नेत्र खन्जन पक्षी के बच्चे के समान थे। हे सखि । वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो चन्द्रमा के भीतर दो समान रूप वाले नवीन नीलकमल खिले हुए हों।


(3) 
पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ।
नवनील कलेवर पीत अँगा झलकै पुलक नृपु गोद लिएँ ।।
अरबिंदु सो आननु रूप मरंदु अनुदित लोचन- ग पिएँ।
मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जग में फलु कौन जिएँ।।


उस बालक के चरणों में घुघुरू, कर-कमलों में पहुंची और गले में मनोहर मणियों की माला शोभायमान थी। उसके नवीन श्याम शरीर पर पीला अँगुला झलकता था । महाराज उसे गोद में लेकर पुलकित हो रहे थे। उसका मुख कमल के समान था, जिसके रूपमकरन्दका पान कर (देखने वालों के) नेत्ररूप भौरे आनन्दमग्न हो जाते थे। श्री गोसाईंजी कहते हैं- यदि मन में ऐसा बालक न बसा तो संसार में जीवित रहने से क्या लाभ है।


(4) 
तनकी दुति स्याम सरोरुह लोचन कुजकी मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबी भूरि अनंग की दूरि धरै ॥
दमकैं द॑तियाँ दुति दामिनि-जौं किल कैं कल बाल-बिनोद करें।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरै ।।


उनके शरीर की आभा नील कमल के समान हैं तथा नेत्र कमल की शोभा को हरते हैं। धूलि से भरे होने पर भी वे बड़े सुन्दर जान पड़ते है और कामदेव के समान चमकते हैं और वे किलक-किलक कर मनोहर बाल लीलाएँ करते है अयोध्यापति महाराज दशरथ के वे चारों बालक तुलसीदास के मन मन्दिर सदैव विहार करें।


(5)
बाललीला 
कबहूँ ससि मागत आरि करें कबहूँ प्रतिबिंब निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइ कै नाचत मातु सबै मन मोद भरें।
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठि के पुनि लेत सोई जेहि लागि अरें।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरें।।


कभी चन्द्रमा को माँगने का हठ करते हैं, कभी अपनी परछाई देखकर डरते हैं, कभी हाथ से ताली बजा-बजाकर नाचते हैं, जिससे सब माताओं के हृदय आनन्द से भर जाते हैं। कभी रूठकर हठपूर्वक कुछ कहते हैं और जिस जिस वस्तु के लिये अड़ते हैं, उसे लेकर ही मानते हैं। अयोध्या पति महाराज दशरथ के वे चारों बालक तुलसीदास के मनमन्दिर में सदैव विहार करें।


(6)
बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खोलन की।
चपला चमक घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलन की।
घुँघरारि लटैं लटकैं मख ऊपर कंडल लोल कपोलन की।
नेवछावरि प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलन की ॥


कुन्दकली के समान उज्ज्वलवर्ण दन्तावली, अधरपुटों का खोलना और अमूल्य मूक्तामालाओं की छवि ऐसी जान पड़ती हैं मानो श्याम मेघ के भीतर  बिजली चमकती हो । मुख पर घुँघराली उलके लटक रही हैं । तुलसीदासजी कहते हैं- लल्ला । मैं कुण्डलों कि झलक से सुशोभित तुम्हारे कपोलों और इन अमोल बोलों पर अपने प्राण न्यौछावर करता हूँ।


(7) 
अति सप्रेम सिय पायें परि बहुबिधि देहिं असीस ।
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस ॥


वे अन्यन्त प्रेम से सीताजी के पैरों पड़कर बहुत प्रकार से आशीष देती हैं (शुभ कामना करती हैं) कि जबतक शेषजी के सिरपर पृथ्वी रहे, तबतक तुम सदा सुहागिनी बनी रहों,।


(8) 
पारबती सम पतिप्रिय होहू । देबि न हम पर छाड़ब छोहू ।
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी । जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी ॥


और पार्वती जी के समान अपने पति की प्यारी होओ। हे देवि । हम पर कृपा न छोड़ना (बनाये रखना)। हम बार-बार हाथ जोड़कर विनती करती हैं जिसमें आप फिर इसी रास्ते लौटें,।


(9) 
दरसनु देब जानि निज दासी । लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी।
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं। जनु कुमुदिनी कौमुदी पोषीं ॥


और हमें अपनी दासी जानकर दर्शन दें। सीता जी ने उन सबको प्रेम की प्यासी देखा, और मधुर वचन कह-कहकर उनका भली भाँति सन्तोष किया। मानो चाँदनी ने कुमुदिनियों को खिलाकर पुष्ट कर दिया हो।


(10)
 तबहिं लखन रघुबर रूख जानी। पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी।
सुनत नारि नर भए दुखारी। पुलकित गात बिलोचन बारी ॥


उसी समय श्रीरामचन्द्रजी का रूख जानकर लक्ष्मण जी ने कोमल वाणी से लोगों से रास्ता पूछा । यह सुनते ही स्त्री-पुरूष दु:खी हो गये । उनके शरीर पुलकित हो गये और नेत्रों में (वियोग की सम्भावना से प्रेम का) जल भर आया।


(11) 
मिटा मोदु मन भए मलीने । बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने।
समुझि करम गमि धीरजु कीन्हा । सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा॥


उनका आनन्द मिट गया और मन ऐसे उदास हो गये मानो विधाता दी हुई सम्पति छीने लेता हो । कर्म की गति समझकर उन्होंने धैर्य धारण किया और अच्छी तरह निर्णय करके सुगम मार्ग बतला दिया।


 (12) 
लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ। -
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ ॥ 


तब लक्ष्मण जी और जानकी जी सहित श्री रघुनाथ जी ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया, किन्तु उनके मनों को अपने साथ ही लगा लिया।


(13) 
फिरत नारि नर अति पछिताहीं । दैअहिं दोषु देहिं मन माहीं।
सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहहीं॥


लौटते हुए वे स्त्री-पुरूष बहुत ही पछताते हैं और मन-ही-मन दैव को दोष देते हैं। परस्पर विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी काम उलटे हैं।


(14) 
निपट निरंकुस निठुर निसंकू । जेहिं ससि कीन्ह सरूज सकलंकू।
रूख कलपतरू सागरू खारा । तेहिं पठए बन राजकुमारा॥


वह विधाता बिलकुल निरंकुश (स्वतन्त्र), निर्दय और निडर हैं, जिसने चन्द्रमा को रोगी (घटने-बढ़ने वाला) और कलंकी बनाया, कल्पवृक्ष को पेड़ और समुद्र को खारा बनाया। उसी ने इन राजकुमारों को वन में भेजा हैं।


(15) 
जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू । कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू ।
ए बिचरहिं मग बिन पदनाना । रचे बादि बिधि बाहन नाना॥


जब विधाता ने इनको वनवास दिया हैं, तब उसने भोग-विलास व्यर्थ ही बनाये । जब ये बिना जूते के (नंगे ही पैरों) रास्ते में चल रहे हैं, तब विधाता अनेकों वाहन (सवारियाँ) व्यर्थ ही रचे।


(16)
ए महि परहिं डासि कुस पाता। सुभग सेज कत सृजत बिधाता। तरूबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा। धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा॥


जब ये कुश और पत्ते बिछाकर जमीन पर ही पड़े रहते हैं, तब विधाता सुन्दर सेज (पलंग और बिछौने) किसलिये बनाता हैं? विधाता ने तब इनको बड़े-बड़े पेड़ों (के नीचे) का निवास दिया, तब उज्ज्वल महलों को बना-बनाकर उसने व्यर्थ ही परिश्रम किया।


(17) 
जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सठि सुकुमार।
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार ॥


 जो ये सुन्दर और अत्यन्त सुकुमार होकर मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहनते और जटा धारण करते हैं, तो फिर करतार (विधाता) ने भाँति-भाँति के गहने और कपड़े व्यर्थ ही बनाये।


(18)
जौ ए कंद मूल फल खाहीं। बादि सुधादि असन जब माहीं।
एक कहहिं ए सहज सुहाए । आपु प्रगट भए विधि न बनाए ।


जो ये कन्द, मूल, फल खाते हैं तो जगत में अमृत आदि भोजन व्यर्थ ही हैं। कोई एक कहते हैं- ये स्वभाव से ही सुन्दर हैं (इनका सौन्दर्य माधुर्य नित्य और स्वाभाविक हैं) ये अपने आप प्रकट हुए हैं, ब्रह्मा के बनाये नहीं हैं।


(19) 
जहँ लगि बेद कही बिधि करनी। श्रवन नयन मन गोचन बरनी।
देखहु खोजि भुअन दस चारी । कहँ अस पुरूष कहाँ असि नारी ।।


हमारे कानों, नेत्रों और मनके द्वारा अनुभव में आने वाली विधाता की करनी को जहाँ तक वेदों ने वर्णन करके कहा हैं, वहाँ तक चौदहों लोकों में ढूँद देखो, ऐसे पुरूष और ऐसी स्त्रियाँ कहाँ हैं? (कहीं भी नहीं हैं, इसी से सिद्ध हैं कि ये विधाता के चौदहों लोकों से अलग हैं और अपनी महिमा से ही आप निर्मित हुए हैं।)


(20) 
इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा। पटतर जोग बनावै लागा।
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए । तेहिं इरिषा बन बानि दुराए ।


इन्हें देखकर विधाता का मन अनुरक्त (मुग्ध) हो गया, तब वह भी इन्हीं की उपमा के योग्य दूसरे स्त्री-पुरूष बनाने लगा। उसने बहुत परिश्रम किया, परन्तु कोई उसकी अटकल में ही नहीं आये (पूरे नहीं उतरे) । इसी ईर्ष्या के मारे उसने इनको जंगल में लाकर छिपा दिया हैं।


(21)
एक कहहिं हम बहुत न जानहिं । आपुहि परम धन्य करि मानहिं ।
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे। जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे।


कोई एक कहते हैं- हम बहुत नहीं जानते। हाँ, अपने को परम धन्य अवश्य मानते हैं (जो इनके दर्शन कर रहे हैं) और हमारी समझ में वे भी बड़े पुण्यवान् हैं जिन्होंने इनको देखा हैं, जो देख रहे हैं और जो देखेंगे।


(22) 
एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर ।
किमि चलिहहिं मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर ॥ 


इस प्रकार प्रिय वचन कह-कहकर सब नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर लेते हैं और कहते हैं कि ये अन्यन्त सुकुमार शरीर वाले दुर्गम (कठिन) मार्ग में कैसे चलेंगे। 


अन्य पढें -

1. कबीर की व्याख्या 

2. सूरदास की व्याख्या 





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