रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानन्द का स्थान, भावपक्ष और कलापक्ष

रीतिमुक्त काव्यधारा में घनानन्द का स्थान निर्धारित कीजिए? 

रीतिमुक्त काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवियों में घनानन्द का स्थान है । घनानन्द हिन्दी के उस विरले कवियों में से एक हैं, जिनका अनुभूति पक्ष जितना सशक्त है, उतना ही सामर्थ्य उनके अभिव्यक्ति पक्ष में भी हैं | उनकी अनुभूतियाँ लाक्षणिक भाषा एवं कलात्मक सौंदर्य से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ सरल, मधुर और लयात्मक भी हैं। घनानन्द के काव्य में चमत्कार, सौन्दर्य, आकर्षण का अद्भुत प्रभाव हैं । घनानन्द के काव्य में न केवल भावों का अथाह प्रवाह है अपितु भाषा और अर्थ की गहरी व्यंजना भी हैं। घनानन्द के काव्य का मूल स्वर प्रेम है। प्रेम की दशा का जैसा उद्घाटन घनानन्द ने किया, वैसा किसी अन्य श्रृंगारी कवि ने नहीं किया। घनानन्द प्रेम की पीर के अमर गायक हैं। घनानन्द के प्रेम की पीड़ा लौकिक एवं अलौकिक है। 


० भावपक्ष/अनुभूति पक्ष


1) प्रेम भावना- घनानन्द के काव्य में भी यद्यपि लौकिक और अलौकिक दोनों स्वरुपों के दर्शन होते हैं, पर विशषेता यह है कि उनकी साधना प्रेम की भूमिका से ऊपर उठती हुई भक्ति की पुनीत भूमिका पर प्रतिष्ठित हुई हैं। घनानन्द के काव्य का मूल स्वर प्रेम हैं।

उनके काव्य में प्रेमी हृदय की दीनता, लघुता, आशा, उन्माद, चेतना उपालम्भ, कसक, घुटन आदि अनेक दशाओं के बड़े ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किये गये हैं। 


2) प्रकृति वर्णन- घनानन्द के काव्य में प्रकृति की मनोहर छटा अंकित हुई। घनानन्द ने प्रकृति के विभिन्न रुपों का चित्रण अपने काव्य में किया। उन्होंने प्रकृति द्वारा मानव-हृदय पर पड़ने वाले प्रभावों का चित्र खींचा है। आलम्बन रुप की अपेक्षा उन्होंने प्रकृति का उद्दीपन रुप में चित्रण अधिक किया है। वे वियोगी थे, अत: उन्होंने वियोग की दृष्टि से ही प्रकृति को देखा है। 


3) भक्ति भावना- घनानन्द जी निम्बार्क सम्प्रदाय के मानने वाले थे। उन्होंने कृष्ण भक्ति में लीन होकर विभिन्न पदों को गाया हैं । 'सुजान' शब्द का सम्बोधन उन्होंने राधा-कृष्ण के लिए किया हैं।


4) संयोग श्रृंगार- घनानन्द ने संयोग श्रृंगार के अन्तर्गत रुप वर्णन, हावभाव, क्रीड़ाओं तथा दशाओं का समावेश किया हैं। इस वर्णन में उन्होने भौतिक सौन्दर्य की ओर कम ध्यान दिया है। 


5) वियोग श्रृंगार- उनकी कविता का सबसे बड़ा प्रेरणा स्त्रोत स्तम्भ है। वे नये सुजान नामक अपनी प्रेयसी से बिछुड़ कर कृष्ण का राधा पर्यायवाची शब्द उनके लिए प्रयोग करके जो रचना की गई है वह पाठक का मन बरबस अपनी ओर खींच लेती हैं। 


अभिव्यक्ति पक्ष/कलापक्ष-अलंकार विधान


अलंकार काव्य में चारुता का विधान करने के साथ-साथ भावाभिव्यक्ति में भी सहायता पहुँचाते हैं। घनानन्द जैसे कवियों को अलंकार लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। भावों के उत्कर्ष के लिए अथवा भाव, दृश्य, गुण तथा व्यापार को स्पष्ट करने के लिए जहाँ जिस अलंकार की आवश्यकता है, वहाँ वह स्वयं आ जाता हैं। भावावेश में उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार स्वत: चले जाते है। घनानन्द जी ने अलंकारों का सफल प्रयोग किया है, जैसे -


रुपक- पान पखेरु परे तरफै लखि, रुप चुगौ जु फंदे गुन-गाथनि। 


श्लेष- परकारज देह की धारे फिरौ, परजन्य जथारथ है दरसौ। 

विरोधाभास- पौन सी जागत सुनी ही, पै पानी ते लागति आँखिन् देखो।

वादवैदग्धता- महाकवि घनानन्द के काव्य में जो चमत्कार आया है उसका मूल कारण उनकी वाणी की वाग्वैदग्धता ही हैं। उनकी भाषा की अभिव्यंजना शक्ति के कारण ही उनको इतनी सफलता मिली हैं।


भाषा- घनानन्द की भाषा सरल ब्रजभाषा है । ब्रजभाषा पर उनका असाधारण अधिकार था । भाषा की सुन्दरता को जितना घनानन्द ने देखा उतना अन्य किसी भी कवि ने नहीं देखा । उनकी भाषा में तत्सम तथा तद्भव शब्दों का प्रयोग हुआ हैं। संस्कृत और फारसी के शब्दों का भी कवि की भाषा में प्रयोग हुआ है । घनानन्द की भाषा का प्रमुख गुण उनकी लाक्षणिकता एवं ध्वन्यात्मकता है। श्लेष मिश्रित मुहावरों का प्रयोग उनके काव्य-सौन्दर्य को बढ़ा देता हैं।


छन्द - जिस प्रकार इनका भाषा पर अधिकार था उसी प्रकार छंदों पर भी था। सवैया और कवित्त इन दो छन्दों को ही उन्होंने सबसे अधिक अपनाया। किन्तु इन छन्दों में कहीं पर भी किसी प्रकार दोष नहीं । रीतिकालीन मतिराम और देव जैसे सफल में भी छन्द-विषयक दोष पाये जाते हैं। किन्तु इनके छन्दों में किसी प्रकार का दोष नहीं। इनके कवित्तों की मस्तानी चाल पर शुक्लजी भी विभोर हो उठे थे। उन्होंने घनानन्द को रीतिकालीन स्वच्छन्द काव्यधारा का महान प्रतिनिधि कहा हैं घनानन्द वास्तव में साहित्य रचना एव चिन्तन के क्षेत्र में 'आनन्द' के घन हैं। जो मन एवं आत्मा को रस से सराबोर कर देते हैं । निश्चयही उनकी कविता में सहज भाषा का उद्रेक है और उनकी कलात्मक अभिरुचि प्रशंसनीय है।





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