इस लेख में रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ और रीतिकाल की प्रमुख काव्यधाराओ के बारे में सम्पूर्ण जानकारी दी गई है।
रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ बताइये?
इस काल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1) श्रृंगार प्रवृत्ति- यह प्रवृत्ति इस काल की सर्वाधिक स्पष्ट एवं प्रमुख प्रवृत्ति है। समूचे काव्य में श्रृंगार रस की ही प्रधानता है। कवियों ने नखशिख सौन्दर्य वर्णन, नायिका भेद आदि का वर्णन प्रमुख रूप से किया है, किन्तु कवित्व के नाम पर इन सब पर मांसल श्रृंगारिका का आवरण चढ़ा हुआ है। अत: श्रृंगार ही रीतिकाल का प्रमुख काव्य एवं प्रतिपाद्य है।
2) रीति निरूपण- रीतिकालीन कवियों की प्रधान प्रवृत्ति है- 'रीति निरूपण' अर्थात लक्षण गन्थों की रचना करना । संस्कृत काव्यशास्त्र को हिन्दी में रूपान्तरित करने का काम रीतिकालीन आचार्यों द्वारा किया गया है। विभिन्न काव्यांगों के लक्षण एवं उदाहरण देते हुए अनेक कवियों ने लक्षण ग्रन्थों की रचना की।
3) अलंकारों के प्रति रूझान- श्रृंगार वर्णन के बाद रीतिकाल की दूसरी प्रमुख प्रवत्ति है- अलंकार वर्णन और काव्यों में इनके प्रयोग के प्रति सर्वाधिक रूझान है। प्राय: सभी कवि अलंकारवादी थे। उक्ति वैचित्र्य और चमत्कार के प्रदर्शन में अलंकार निश्चय ही विशेष सहायक होते हैं। जिन कवियों ने लक्षण ग्रन्थ लिखे, उन्होंने भी काव्य सृजन करते समय अलंकारिकता का ध्यान अवश्य रखा । बिहारी के दोहे इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
4) आश्रयदाताओं की प्रशंसा- रीतिकाल के अधिकांश कवि राजदरबार के आश्रय में रहते थे। अत: स्वभाविक था कि वे अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा में काव्य रचते । येन-केन-प्रकारेण कवि अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न रखने का प्रयत्न करते रहते थे।
5) भक्ति की प्रवृत्ति- भक्तिकाल से चली आ रही भक्ति मुख्यत: कृष्ण भक्ति की परम्परा भी इस काल में देखने को मिलती है, पर ज्ञातत्व यह है कि यहाँ भक्ति का स्वस्थ साम्प्रदायिक स्वरूप नहीं रह गया है। दूसरे भक्ति भावनाएँ भी बहुत बुरी तरह श्रृंगारिकता के पर्यावरण से लिपटी हुई है। दृष्टिकोण स्थूल एवं राधा-कृष्ण के बाह्य सौन्दर्य के चित्रण तक ही सीमित है।
6) वीर काव्यों का प्रणयन- रीतिकाल में सामान्यतया श्रृंगार रस की ही प्रधानता रही, फिर भी इसके साथ-साथ, बल्कि समानान्तर पर वीर काव्यों की धारा अपने क्षीण रूप में प्रवाहित होती रही, यह एक सर्वमान्य तथ्य है। औरंगजेब जैसे शक्की एवं धर्मान्ध शासक के अत्याचारों से पीड़ित होकर देश के विभिन्न कोनों में प्रतिकार चलाने के लिए अनेक वीरात्मक शक्तियों का उदय हो गया था। इनकी वीरता भावना से प्ररित होकर वीर काव्य का प्रणयन हुआ।
7) प्रकृति चित्रण- प्रकृति अनन्त काल से कवियों एवं साहित्यकारों की भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाती जा रही है । इसका वर्णन कवि आरम्भ से ही आलम्बन, उद्दीपन, आश्रय एवं स्वतंत्र रूपों में करते आ रहे हैं, परन्तु रीतिकाल में दरबारी वातावरण की विवशता के कारण प्रकृति का चित्रण आलम्बन रूप में ही हुआ । षड्ऋतु वर्णन और बारह मासा वर्णन इसी प्रकार के हैं। कहीं-कहीं सेनापति जैसे कवियों ने प्रकृति का स्वच्छन्द रूप में वर्णन किया है।
8) नारी का विलासात्मक चित्रण- रीतिकालीन कवि नारी के विलासात्मक चित्रों द्वारा अपने आश्रय दाता का मनोरंजन किया करते थे । कवियों ने नारी के गृहणी, जननी, देवी रूपों की अपेक्षा विलासी रूप में उसका चित्रण किया। अत: नारी के सामाजिक जीवन के महत्व का उद्घाटन नहीं हो पाया।
9) लोकदर्शन- यह ठीक है कि दरबारी वातावरण की सीमा एवं अशर्फीवाद की प्रवृत्तियों के कारण सामान्यतया कवि की रूचि लोक या प्रत्यक्ष जीवन के दर्शन की ओर नहीं थी, फिर भी सम्भ्रान्त जीवन का चित्रण इनके कार्यों में प्रत्यक्षतः देखा जा सकता है। इनमें व्यापकता चाहे न हो, जीवन के आरोहावरोहों के दर्शन भी विशेष नही होते, फिर भी कविगण कुछ-न-कुछ स्फूर्ति लोकजीवन को अवश्य देते रहे।
रीतिकाल की विभिन्न काव्यधाराओं पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए?
रीतिबद्ध काव्यधारा- इसके अन्तर्गत वे कवि आते हैं, जो रीति से पूर्णत: प्रभावित होकर रचनाएँ कर रहे थे अर्थात वे कवि, जिन्होंने काव्य रचने की रीति को समझने वाले काव्यशास्त्र विषयक ग्रन्थ भी लिखे। केशवदास, मतिदास, देव एवं भिखारीदास आदि इसी काव्य परम्परा के कवि हैं।
रीतिसिद्ध काव्यधारा- ये कवि रीति से प्रभावित तो थे, किन्तु उन्होंने रीति ग्रन्थ अर्थात काव्यशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ लिखने में कोई रूचि नहीं ली। हाँ यह अवश्य है कि उनकी कविता के अधिकांश छन्द ऐसे अवश्य थे जो काव्यशास्त्र में उल्लेखित किसी न किसी सिद्धान्त के उदाहरण थे, बिहारी और उनकी 'सतसई' का इसी काव्यधारा के अन्तर्गत माना जायेगा।
रीतिमुक्त काव्यधारा- इसे रीति स्वच्छन्द काव्यधारा भी कहते हैं। इनके अन्तर्गत ऐसे कवि आते हैं, जिन्होंने न तो रीति ग्रन्थ रचे और न ही रीति सिद्धान्तों में कोई रूचि ली। रीति से अप्रभावित होकर अपनी ही धुन में मस्त रहने वाले ये कवि ही रीतिमुक्त' या 'रीति स्वच्छन्द' कवि कहलाते हैं। इनमें से घनानन्द का नाम सर्वोपरि है ही. अन्य कवियों में ठाकुर, बोधा आलम, बख्शी, हंसराज, द्विजदेव आदि के नाम भी महत्वपूर्ण हैं।
''कलात्मक उत्कर्ष एवं प्रौढ़ता की दृष्टि से रीतिकालीन काव्य अत्यन्त सशक्त एवं प्रौढ़ है।" इस कथन की विवेचना कीजिए?
हिन्दी में रीति का प्रयोग साधारणत: लक्षण ग्रन्थों के लिए होता है, जिन ग्रन्थों में काव्य के विभिन्न अंगों का लक्षण उदाहरण सहित विवेचन होता है, उन्हें रीतिग्रन्थ कहते हैं और जिस वैज्ञानिक पद्धति पर जिस विद्या के अनुसार यह विवेचन होता है, उसे रीतिशास्त्र कहते हैं। हिन्दी में काव्य रचना सम्बन्धी नियमों के विधान को ही समग्रत: रीति नाम दे दिया गया है। जिस ग्रन्थ में रचना सम्बन्धी नियमों का विवेचन हो वह रीतिग्रन्थ और जिन काव्य की रचना इन नियमों से आबद्ध हो, वह रीतिकाल है । इस प्रकार सोलहवी शताब्दी के मध्यभाग से उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यभाग के हिन्दी साहित्य के इतिहास को रीतिकाल कहा जाता है।
हिन्दी साहित्य में रीतिकाल पर आलोचकों की वक्र दृष्टि रही है। द्विवेदी युग के लोगों ने सदाचार विरोधी कहा, सूक्ष्म सौन्दर्य के समर्थक छायावाद ने रीतिकाल के स्थल सौन्दर्य बोध को हीन ठहराया, प्रगतिवादी समालोचक इसे समाज विरोधी तथा प्रतिक्रियावादी ठहराते तथा प्रयोगवादियों ने इसकी रूढ विषयक वस्तु एवं अभिव्यंजना प्रणाली को एकदम बासी घोषित कर दिया।
डॉ. नगेन्द्र ने कलात्मक उत्कर्ष की दृष्टि से रीतिकाव्य निरूपित करते हुए लिखा है- "कला की दृष्टि से भी रीतिकाव्य का महत्व असंदिग्ध है। वास्तवन हिन्दी साहित्य के इतिहास में सर्वप्रथम रीतिकवियों ने ही काव्य को शद्ध कला के रूप में ग्रहण किया । काव्य कला का अपना स्वतंत्र महत्व था। उसकी साधना स्वयं उसी के निमित्त की जाती थी, वह अपना साध्य आप था। कला के क्षेत्र में व्यवहारिक रूप से भी रीतिकवियों की उपलब्धि कम नहीं है।
बृजभाषा के काव्य रूप का पूर्ण विकास इन्होंने ही किया । वह कांति, माधुर्य और मसृणता आदि गुण से जगमगा उठी। शब्दों को जैसे खराद पर उतार कर कोमल और चिक्कण रूप प्रदान किया। सवैया और कवित्त की रेशमी जमीन पर रंग-बिरंगे शब्द मणिक मोती की तरह ढुलकने लगे। इन दोनों छन्दों की लय में अभूतपूर्व मादक लोच आ गया।"
भाषा के साथ-साथ अभिव्यंजना की साज-सज्जा और अलंकृति की दृष्टि से भी रीतिकाल का वैभव अपूर्व है । यह सत्य है कि उसमें अलंकरण सामग्री का सूर, तुलसी जैसा वैविध्य नहीं है किन्तु विलास युग के रंगोज्जवल उपमानों और प्रतीकों के प्रचुर प्रयोग से रीतिकाल की अभिव्यंजना दीपावली की तरह जगमगाती है । इस कविता का कलात्मक रूप अपने आप में विशेष मूल्यवान है और इसी रूप में इसके महत्व का आंकलन होना चाहिए।
नि:सन्देह रीतिकालीन कवि अक्षरों के मोती से निर्मित कविता की मनोहर माला द्वारा आचार्यों एवं कला प्रेमियों का चित्त अपहृत कर लेते थे। रीतिकालीन कवि कभी अलंकारों के पीछे नहीं पड़े, अलंकार उनकी रचना में आभूषणवत स्वयं चले आते थे। माधुर्य गुण का इस काव्य में क्या पूछना। बिहारी-पद्माकर में भाषा की सजीवता-चित्रात्मकता देखने योग्य है । धनानन्द में लक्षणा का विलक्षण प्रयोग है। केवल आवश्यकता है इस युग के साहित्य सागर में डूबकर रत्नों को उपर लाने वाले कुशल गोताखोरों की। इन सब दृष्टियों के साथ यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि कलात्मक उत्कर्ष एवं प्रौढ़ता की दृष्टि से रातिकालीन काव्य अत्यन्त ही उत्कृष्ट है। रीतिकालीन कविता के स्तम्भ में एक विद्वान का यह कथन भी बहुत समीचीन हो रहा है कि रीतिकाल उस कीत नायिका की तरह है, जिसके हृदय में किसी नायिका के प्रति अनुराग नहीं होता, फिर भी वह नख से शिख तक श्रृंगार करके रंगमंच पर आती है तथा दर्शकों सहृदयों व श्रोताओं को रिझाती है।
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