कबीर के रहस्यवाद का वर्णन(kabir ka rahsyavad) । कबीर के काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष

 

कबीर का रहस्यवाद, कबीर के काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष


कबीर के रहस्यवाद का वर्णन  


रहस्यवाद कवि की एक ऐसी साहित्यिक अभिव्यक्ति है जिसमें वह परम सत्ता के विषय में अपने विचारों को सीधी-सादी भाषा में प्रस्तुत न करके एक नई भाषा में अंकित करता है। वह परम सत्ता को अपनी लेखनी का विषय बनाकर एक ऐसे अनन्त संसार में पहुँच जाता है, जहाँ सुख-दुख, आशा निराशा, हास्य-रूदन, संयोग, शोक-निषाद आदि भी समान है। 


1) रहस्यवाद के प्रकार- मुख्यत: रहस्यवाद दो प्रकार का होता है।

i) साधनात्मक,

ii) भावात्मक। 

साधनात्मक रहस्यवाद में परमात्मा तक पहुँचने की प्रक्रिया का वर्णन किया जाता है तथा भावनात्मक में आत्मा के विरह-मिलन के विविध प्रसंगों की सुन्दर झांकी प्रस्तुत की जाती है। 


2) कबीर का रहस्यवाद- हिन्दी साहित्य में कबीर अद्वितीय रहस्यवादी माने जाते हैं। वे वेदान्ती थे इसी कारण वे जीव ब्रह्म की एकता के समर्थक थे। दूसरी और वे सूफियों के प्रेम की पीर से प्रभावित थे। अत: उनके रहस्यवाद में अद्वैत का माया और चिंतन व सूफियों का प्रेमभाव स्पष्ट देखा जा सकता है । डॉ. राजकुमार वर्मा का कथन दर्शनीय है-

कबीर का रहस्यवाद एक ओर वे हिन्दुओं के अद्वैतवाद की क्रोड में पोषित हैं और दूसरी और मुसलमानों से सूफी-सिद्धान्तों को स्पर्श करते हैं। इसका विशेष कारण यही है कि कबीर हिन्दु और मुसलमान दोनों प्रकार के सन्तों के सत्संग में रहे और वह प्रारम्भ से ही यह चाहते थे कि दोनों धर्म वाले आपस में दूध-पानी की तरह मिल जायें। इसी विचार से वशीभूत होकर उन्होंने दोनों मतों से सम्बन्ध रखते हुए अपने सिद्धान्तों का निरूपण किया। "रहस्यवाद में भी उन्होंने अद्वैतवाद और सूफीमत की 'गंगा-जमुना' साथ ही वहा दी ।"  इसके अतिरिक्त कबीर पर हठयोग का प्रभाव भी स्पष्ट परिलक्षित होता है। हठयोगी साधना पद्धति के आधार पर उन्होंने कुण्डलिनी इडा, पिंगला, सुषुम्रा, मूलाधार आदि छ: चक्रों, सहस्त्राचार या हरन्ध्र आदि पर प्रकाश डाला है।


कबीरदास के काव्य में भावपक्ष तथा कलापक्ष की विवेचना कीजिए? 

भावपक्ष- बहुश्रुत होने के कारण कबीर का सारा काव्य भाव सम्पदा और जीवन के अनुभवों से परिपूर्ण है। वे हंस नीर-क्षीर विवेक की बात निम्न प्रकार कहते हैं-

"हंसा बक एक रंग, लखित रै एक ही ताल ।

क्षीर, नीर वे जानिए, वक उधरै तहि काल ।'' 


तुलसी के समान चातक की प्रेम अनन्यता का वर्णन करते हुए कबीर कहते हैं

"चातक सुतहि पढ़ावहि, आन नीर जनि लेह।

मम कुल यही सभाव है, स्वाति बूंद नित देह ।।" 


बुद्धितत्व की प्रधानता होने का यह अर्थ नहीं है कि उसमें भावतत्व की कमी है। भावतत्व भी उनमें कम मात्रा में नहीं है। उनके काव्य में भावपक्ष की भी उतनी प्रधानता है, जितनी कि ज्ञान तत्व की। जिन आध्यात्मिक भावों को कबीर ने अपने काव्य का विषय बनाया। उनको सरलतम ढ़ग से प्रस्तुत करने में कबीर सफल हुए हैं । आध्यात्मिक योग का एक उदाहरण इस प्रकार है-

"प्रीतम को पतियाँ लिखू, जो कहुँ होय विदेस।

तन में, मन में, नैन में, ताों कहा सन्देस ।।" 


इस आध्यात्मिक विवाह के उपरान्त सुहाग-रात्रि आती है और प्रियतम को पाकर पत्नी-

"अक भरे भर भेटिया, मन में नाहिं धीर ।" वह एक हो जाते हैं।


प्रियतम के प्रति कबीर की विरहणी आत्मा का प्रेम बड़ा आदर्श और महान है। विरह वेदना का चित्र निम्नलिखित है-

"बहुत दिनन की जोहती, बाट तुम्हारी राम। 

जिय तरसै तुझ मिलन कू, मन नाहिं विश्राम ॥" 


कलापक्ष- कलापक्ष की दृष्टि से कबीरदासजी का काव्य उच्चकोटि का है। उनके काव्य में रस योजना, अलंकार विधान, प्रतीक योजना, उलटबाँसियाँ अत्यन्त ही सुन्दर बन पड़ी हैं।

रस- कबीर के साहित्य में मुख्यत: श्रृंगार रस की प्रधानता दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त उनका काव्य अद्भुत तथा शान्त रस से युक्त है।

श्रृंगार रस- स्त्री-पुरूष के दाम्पत्य प्रेम को लेकर कबीर ने श्रृंगार के पद के रहस्यवाद का चित्रण किया है। उनके श्रृंगार रस के पद संयोग तथा वियाग से भरे पड़े हैं-

"जो सुख चहै तो लज्जा त्यागे, पिया से हिल मिल लागे। 

घूंघट खोल अंग भर भेंटे, नैन आरती साजै ।।"


अदभुत रस- कबीर की उलटबाँसियाँ अधिकांशत: अद्भुत रस से युक्त है। इनमें अलौकिक और अदृश्य का उल्लेख मिलता है। उदाहरण-

"समन्दर लागी आगि, नदियां जरि कुइला भई।

देखी कबीरा जागि, मंछी रूखां चढ़ि गई।" 


शान्त रस- माधुर्य भाव से युक्त कबीर के काव्य में शान्त रस की छटा दिखाई देती है।

"संसार ऐसा सुपिन जैसा, जीव है सुपिन समान।" 


अलंकार योजना- कबीर के काव्य में अनायास ही अलंकार आ गए हैं। इनके लिए कबीर को प्रयत्न विशेष नहीं करना पड़ा। उनके काव्य में उपमा रूपक अलंकार की प्रधानता है।

अन्य

1. कबीर की व्याख्या





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