"कबीर वाणी के डिक्टेटर थे।" इस कथन की समीक्षा कीजिए।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि "हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ " कबीर का भाषा पर जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को जिस रुप में उन्होने कहना चाहा उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया। भाषा कबीर के सामने लाचार-सी नजर आती हैं । वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य-रसिक काव्यानंद का आस्वादन कराने वाला समझे तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं किया जा सकता, अनुकरण की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई है । कबीर की वाणी के संबंध में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-
1) डॉ. श्यामसुन्दर दास- "कबीर ग्रंथावली की भाषा पंचमेल खिचड़ी हैं।" - डॉ. रामकुमार वर्मा का कबीर ग्रंथावली की भाषा में पंजाबीपन अधिक हैं।
2) आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- उसकी (साखी की) भाषा सुधक्कड़ी है, अर्थात् राजस्थानी, पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर रमैनी और सबद में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूर्वी बोली का प्रभाव हैं।"
3) शुक्लजी- शूक्ल जी यह मानते है कि कबीर को यह भाषा नाथपंथियों से मिली होगी। नाथ पंथियों का प्रभाव एवं प्रचार क्षेत्र राजस्थान और पंजाब की तरह ही अधिक रहा है। वे मानते हैं कि इस भाषा का ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था। शुक्लजी का यह मत कबीर की भाषा के संबंध में अत्यन्त ही समीचीन प्रतीत होता हैं।
० भाषा पर परम्परा का प्रभाव
कबीर की भाषा में विभिन्न बोलियों का विचित्र सम्मिश्रण इतिहास की उस परम्परा को सूचित करता हैं जिसके अनुसार कबीर के पूर्ववर्ती समकालीन एवं परवर्ती अनेक कवियों ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में एक साथ ही विभिन्न बोलियों का प्रयोग किया था। इसके अतिरिक्त इसका कारण यह भी हो सकता है कि कबीर काशी के वासी थे, परन्तु उनके शिष्य भारत के विभिन्न प्रान्तों से उनके पास आकर प्रवचन सुना करते थे और अपने प्रान्त को लौटते समय इन पर अपनी भाषा का रंग चढ़ा कर साथ ले जाया करते थे। उन्हें भाषा के मूलरुप से कोई मोह न होकर केवल भाव से मोह रहा होगा। इसी कारण भाषा का यह मिश्रण हो गया होगा।
० सरलता
कबीर की भाषा के सरल और सीधे होने का प्रमाण यह है कि यदि उनके उलटबांसियों और पारिभाषिक शब्दों वाले पदों को छोड़ दिया जाय तो उनका सम्पूर्ण काव्य साधारण पढ़े-लिखे की समझ में आ सकता हैं । इसी कारण जनता में जितना प्रचार कबीर की साखियों का है उतना और किसी कवि का नहीं है। कबीर की भाषा की एक दूसरी विशेषता यह भी है कि उनकी भाषा व्यक्ति, विषय और भाव के अनुरुप बदलती रहती हैं | जब वे मुसलमानों या सूफियों की बातें करते थे, तो उसमें अरबी एवं फारसी के शब्दों का व्यवहार आदि अधिक होता था, देखिए -
'मिया तुम्हसों बोल्यां, वाणी नहीं आवै।
हम मसकीन खुदाई बंदे, तुम्हारा जस मन भावै।
अल्ला अबलि दीन का साहिब, जारे नहीं फुरमाया।
मुरसिद पीर तुम्हारे है को कहाँ-कहाँ थै आया।'
० विविध भाषाओं का प्रयोग
कबीर की रचनाओं में भाषा के विभिन्न रूपों का प्रयोग दिखाई देता हैं, जो इस प्रकार हैं
1) अवध
'जस तस तोहि कोई न जान' तथा ''तैसे नाचत मैं दु:ख पावा।"
2) भोजपुरी
"ना हम जीवत मुव न ले माँही' तथा
"दाँत गैल मोर पान खात, केस गैल मोर गंग नहात।"
3) ब्रज भाषा
"अपनयौ आपुन ही विसरयौ'
"लेटयो भोमि बहुत पछितानौ, लालचि लागौ करत कनी।"
4) खड़ी बोली
"करणी किया करम का नास''
"यह मन चंचल मोर है, यह मन सुद्ध ठगार।"
5) पंजाबी
"लूण विलग्गा पांणियां पांणी लूण विलग्न।''
6) राजस्थानी
"क्या जाणों उस पीव कू, कैसे रहसी संग'
"बीछड़िया मिलिवौं नहीं, ज्यों कांचली भुवंग।"
० अरबी-फारसी शब्द
कबीर ने अपनी रचना में अरबी-फारसी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया है। साहब, दीवाना, औरत, दोस्त, गौर, ईमान, आदमी, काजी, अकिल, खालिक, खलक, गुसल, फिकर, मौजूद, गरक आदि ऐसे ही शब्द हैं। भिस्त (बहिश्त) मरद (मर्द), हाजिर, हुजूर, दराज, दिवाल दीगर, निमाज (नमाज), जुदा, खर्चा, दीदार, आदि बहुत से फारसी शब्द भी कबीर के काव्य में प्रयुक्त हुये है। कहीं-कहीं तो अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार से पूरा पद ही अरबी-फारसी रचना जैसा प्रतीत होता हैं -
"खालिक हर कहीं दर हाल।
पंजर जसि करद दुसमन, मुरद करि पैमाल ॥
भिस्त हुसकां दो जगां, दुंदर दराज दिवाल।
यह नांम परदा ईत आतस, लहर जंगम जाल ॥"
उपर्युक्त उदाहरण यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि कबीर की भाषा में उपरोक्त छ: भाषाओं का मिश्रण है । यहाँ यह तो ठीक है किन्तु जब हम कबीर की तीन विभिन्न ग्रन्थों में संग्रहीत एक ही पद की भाषा के क्रमश: तीन रुप देखते हैं तो पुन: भ्रम होने लगता है कि कबीर की भाषा का मूल रुप कौन-सा होगा? इस रुप भिन्नता के कारण डॉ. श्यामसुंदर दास यह बताते हैं कि कबीर के काव्य को जिस-जिस प्रदेश के शिष्य ने लिखित रुप दिया होगा। उसने उस पर अपने-अपने प्रदेश की भाषा का रंग चढ़ा दिया होगा। कबीर की भाषा की विशेषता है कि उसमें अधिकांश शब्दों के अत्यंत ही विकृत रुप प्रयुक्त किए गए है। कभी-कभी तो उनके वास्तविक रुप का पता लगाना ही कठिन हो जाता हैं। उनकी भाषा व्यक्ति, विषय एवं भाव के अनुरुप बदलती रहती हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कबीर की भाषा के जादूगर थें । उनकी भाषा में सर्वत्र एक प्रवाह और प्रेषणीयता हैं। उनकी भाषामन की अचल गहराइयों से निकली है वह सीधे मन को छूती है, भावों को उत्तेजित कर देती हैं, यही कारण है कि वे वाणी के डिक्टेटर कहलाए।
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