सूरदास के काव्य की भाषा पर विचार व्यक्त कीजिए?
सूर ब्रजभाषा के आदि कवि- सूर ब्रजभाषा के आदि कवि माने जाते हैं। सूर के पहले कुछ कवियों ने ब्रजभाषा मे काव्य रचना की, किन्त उसे व्यवस्थित साहित्यिक रूप सूर से पहले न मिल सका था । ब्रजभाषा का व्यवस्थित और साहित्यिक रूप देने वाले सूरदास ही हैं । सूर की प्रतिभा ने ब्रजभाषा का व्यवस्थित रूप ही नहीं दिया, अपितु उसे चरमोत्कर्ष पर पहुँचा दिया।
कोमलकान्त पदावली और सानुप्रासता- सूर की भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त अनुप्रासमयी है। उसमें प्रवाह और सजीवता है । वह अपने स्वाभाविक सौन्दर्य और मिठास से मन को मोह लेती है।
संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ तद्भव शब्दों का प्राचुर्य- सूर की ठेठ ब्रजभाषा में तत्सम शब्दावली के कारण वह लगभग 400 वर्षों तक समस्त उत्तरी भारत के कवियों की भाषा बनी रही। सूर के काव्य में विशाल शब्द-भण्डार मिलता है। यही कारण है कि वे बड़ी सफलता से प्रत्येक भाव को अभिव्यक्त कर देते हैं । सूर की भाषा में संस्कृत में तत्सम शब्दों के खड़ी बोली पूर्वी, पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और अरबी-फारसी के शब्द भी मिलते हैं । इन शब्दों के प्रयोग से सूर की भाषा में शक्ति आ गई है।
सूर की ब्रजभाषा में ठेठ ब्रजभाषा के शब्द मिलते हैं। उदाहरण के लिए दुर, छाक, भोंढा, भौरा चक डोरी, झोरी, कनियाँ आदि शब्दों को लिया जा सकता है। सूर की टकसाली भाषा में खसम, जनाब, बक्सो, जहाज, मुहकम आदि फारसी इहवाँ मोर, तार आदि अवधी-पंजाबी, वियों, गुजराती, गहिबी, साहिबी आदि बुन्देलखण्डी शब्द मिलते हैं।
भाषा में प्रवाह- सूर की भाषा प्रवाहमयी है। भाषा भावों की चेरी बनकर अनुगमन करती है। निम्न पद में सफल शब्द योजना रास का सजीव चित्र उपस्थित कर देती है।
सजीवता- सूर की भाषा सजीव है लोकोक्ति और मुहावरों का प्रयोग भाषा को शक्ति प्रदान करता है।
सूर की भाषा में चित्रमयता सजीव चित्र प्रस्तुत कर देती है निम्न उदाहरण देखिये-
"लटकत मुकुट मटक भौहिन की, चटकत चलत मन्द मुसकात।"
सूर की भाषा के रूप- सूर अपने काव्य में भक्त, कवि एवं गायक के रूप में आते हैं। उनके इन तीनों रूपों की भाषा में परिवर्तन हो जाता है । कथागायक के रूप की भाषा साधारण है, उसमें काव्य सौष्ठव और माधुर्य नहीं है । जहाँ सूर का भक्त हृदय फूट पड़ा है, वहाँ कवित्व की वेगवती धारा प्रवाहित हो उठती है। बालकृष्ण के सौन्दर्य वर्णन में भाषा चमत्कारमयी हो जाती है। प्रेम-प्रसंगों के वर्णन में यह चमत्कारिता और अधिक बढ़ जाती है। सूर के काव्य में भाषा का इतना मनोहारी रूप मिलता है कि उनकी प्रतिभा पर मुग्ध होना पड़ता है।
सूर के भ्रामरगीत पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये?
सूर के भ्रमरगीत का मुख्य उद्देश्य भक्ति मार्ग की स्थापना करना है। उन्होंने सगुण भक्ति का सन्देश मानव को दिया है | भागवत की कथा सूरदास को वल्लभाचार्यजी से प्राप्त हुई, उसी के आधार पर उन्होंने भ्रमर गीत की रचना की। भ्रमर गीत का मूल स्त्रोत भागवत है । सूर ने भागवत के प्रसंग में बहुत परिवर्तन और परिवर्द्धन किया। भागवत में गोपियाँ अन्त में ज्ञान प्राप्त करती हैं, किन्तु भ्रमर गीत में वे भक्ति की प्रधानता प्रतिपादित करती हैं।
भ्रमर को माध्यम बनाकर कृष्ण को लिखे गए गीतों से सम्बन्धित काव्य भ्रमर गीत कहलाता है। वस्तुत: यह उपालंभ काव्य है।
सूरदास ने अपने 'सूरसागर' में जिस 'भ्रमरगीत' की सृष्टि की है, उसका वर्णन श्रीमद् भागवत के दशम स्कन्ध के 46 वें एवं 47 वें अध्याय में किया गया है, जो केवल 118 श्लोकों में लिखित हैं। सूरदास का भ्रमरगीत 749 पदों में रचित है। भागवत का भ्रमरगीत वर्णनात्मक है, जबकि सूर का भ्रमरगीत गीतात्मक है। सूरदास का भ्रमरगीत श्रीमद् भागवत का चिर ऋणी रहेगा।
सूरदास की सर्वोत्कृष्ट रत्नराशि है। काव्य की दृष्टि से, भाव्य सौन्दर्य की दृष्टि से कवित्व की दृष्टि से उसी में सूरदास के जीवन का भी संदेश निहित है।
सूर ने भ्रमरगीत के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत किया है। निर्गुण बड़ी चीज होगी पर ब्रज में तो नन्दलाल गोपाल ही सबकुछ हैं। उनसे बढ़कर कुछ भी नहीं है। वे तो हमारे लिए प्राणों से भी बढ़कर हैं। उसी प्रकार ज्ञान की बातें, योग के संदेश गोपियों का इन सबसे क्या प्रयोजन है? कृष्ण अब क्या संदेश भेज रहे हैं और ऊधौ भी कैसी बहकी बातें कर रहे हैं।
भ्रमरगीत प्रसंग में विरह की मार्मिक व्यंजना के साथ निर्गुण भक्ति का खण्डन एवं सगुण भक्ति की महत्ता पर बल दिया है। इसलिए तो आलोचनो शिल्पी शुक्ल ने भावना के वशीभूत होकर कहा है कि 'भ्रमरगीत सूर साहित्य की सर्वोत्तम रत्नराशि है।' न केवल यह प्रसंग परन्तु समस्त 'सूरसागर ही शुक्लजी की भाषा में सर्वोत्तम रत्नराशि का भण्डार है। जहाँ भाँति-भाँति के रत्न बिखरे पडे हैं- एक-से-एक जाज्वल्यमान, प्रकाशमान और अद्भुत क्रान्ति से हत्प्रभ करने वाले रत्न।
जिस साधक, भक्त व सहृदय को चाहिए अपनी रूचि से चुन ले और अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव करे। सूरकृत भ्रमरगीत अपनी परम्परा का सर्वोत्कृष्ट रत्न है और परम्परा को अधिक विकास का अवसर प्रदान करने के पश्चात भी अपने आप में अनुपम, सर्वोत्तम और मनोरम है।
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