"सूरदास वात्सल्य रस के सम्राट है और वे इस क्षेत्र का कोन-कोन छान आ हैं।" इस कथन की व्याख्या कीजिए। ..
सूर वात्सल्य रस के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं । सूर के वात्सल्य वर्णन में जो सर्वांगीणता और मार्मिक मिलती हैं, वह उनसे पूर्व के कवियों में नहीं मिलती। सूर ने अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की बालसुलभ चेष्टाओं, मनोहारी क्रियाओं, रमणीय बाल-क्रीडाओं एवं बाल मनोविज्ञान का ऐसा हृदयकारी एवं प्रभावशाली वर्णन किया हैं कि उसे पढ़कर एवं सुनकर हृदय हठात उस ओर ही आकृष्ट हो जाता हैं। वास्तव में बाल सुलभ चेष्टाओं का जितना मनोमुग्धकारी चित्रण सूरसागर में मिलता हैं, उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं। डॉ. हरवंश लाल शर्मा लिखते हैं-
"सुर का वात्सल्य भाव भी विश्व साहित्य में अपना विशेष स्थान रखता हैं। यदि यह कहा जाए कि सूर ने पुरुष होते हुए भी माता का हृदय पाया था तो कोई असंगति नहीं समझनी चाहिए।"
सूरदास के काव्य में वात्सल्य स्वतंत्र रूप से चरमोत्कर्ष पर दृष्टिगोचर होता हैं। आचार्य रामचंद शुक्ल के शब्दों में- "वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक सूर की दृष्टि पहुँची, वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।'' यदि कहा जाय कि सूर ने पुरुष होते हुए भी माता का हृदय पाया था, तो असंगति नही समझना चाहिए। सूर की प्रतिभा और भावुकता से इस क्षेत्र का कोई भी कोना अथवा कोई भी चेष्टा अछूती नहीं रही।
सूर का वात्सल्य वर्णन दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1) संयोग वात्सल्य और, 2) वियोग वात्सल्य।
1) संयोग वात्सल्य- संयोग वात्सल्य के अंतर्गत कृष्ण की बाल लीलाओं और तज्जनित आनन्द का वर्णन आता है। सूर बाल मनोविज्ञान के अद्वितीय मर्मज्ञ थे। बालक के प्रत्येक हाव-भाव से उनका पूर्ण परिचय था। उन्हों ने कृष्ण के बचपन के असंख्य मनोरम और स्वाभाविक चित्र खींचे हैं। बालक श्री कृष्ण पालने में सोने का उपक्रम कर रहे हैं और माता यशोदा उन्हें सुलाने का प्रयत्न कर रही हैं।
"यशोदा हरि पालने झुलावै।
लरावें, दुलरावें, मलहरावै, जोई सोई कछु गा।
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहै न आनि सुलावै ॥"
श्रीकृष्ण की माखन चोरी पकड़े जाने पर, वे बड़े भोलेपन से अपने बचाव के लिए तर्क प्रस्तुत करते हैं ।
"मैया मैं नाहिं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि बरबस मुँह लपटायो।"
कृष्ण को बलराम ने चिढा दिया है कि तू नन्द और यशोदा का पुत्र नहीं हैं। तुझे तो मोल खरीदा गया हैं, क्यों कि नन्द और यशोदा दोनों तो गौरे हैं और तू काला हैं। इस बात पर कृष्ण के हृदय में जो खीझ उत्पन्न होती हैं, उसका चित्ताकर्षक वर्णन सूर ने इस प्रकार किया हैं -
"मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो।
मोसो कहत मोल को लीनो, तेहि जसुमति कब जायो।
कहा-कहा एहि रिस के मारे, खेलन ह्रौं नहिं जातु।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तुम्हरे तातु।
गोरे नन्द जसोदा गोरी तुम कत स्याम शरीर ।
चुटकी दे दै हँसते ग्वाल सब, सीख दैत बलबीर ॥"
इस प्रकार सूर के वात्सल्य वर्णन में एक से बढ़कर एक सजीव चित्र बाल मनोवृत्तियों के दिखाई देते हैं।
2) वियोग वात्सल्य- संयोग वात्सल्य की भाँति सूर के वियोग वात्सल्य का भी स्वाभाविक चित्रण दिया है । नन्द यशोदा का बालक कृष्ण के प्रति जितना उत्कृष्ट प्रेम था, वियोग भी उतना ही दारुण हो गया । कृष्ण के मथुरागमन के समय यशोदा की दयनीय दशा हो जाती हैं -
"जसोदा बार-बार यों भाखै
है ब्रज में कोउ हितू हमारो चलत गोपालहिं राखै ॥"
जिस समय नन्द अकेले ही मथुरा से लौटते हैं और माता यशोदा उन्हें द्वार पर अकेला खड़ा देखकर क्षोभ के मारे आकुल हो उठती हैं। यशोदा अपने प्रिय के अभाव में एक सहज टीस, स्वाभाविक आकुलता एवं नैसर्गिक व्यथा से परिपूर्ण होकर अपने पति नन्द को फटकार उठती हैं-
"जसुदा कान्ह कान्ह कै बूझे । फूटि न गई तुम्हारी चरौ कैसे मारग सूझ"
परन्तु यशोदा को इतने में संतोष नहीं होता हैं, वह आकुल होकर यहा तक कह डालती हैं -
"छांडि सनेह चले मथुरा, कत दौरि न चीर गह्यौ।
फाटि न गई ब्रज की छाती, कत यह सूल सह्यो।
निष्कर्षत: कहा जा सकता हैं कि सूरदास ने अपनी बंद आँखों से मातापुत्र के वात्सल्य को इतनी सजीवता के साथ प्रस्तुत किया है कि आँखों के माध्यम से भी वह नहीं किया जा सकता है। अपने हृदय में यशोदा की स्थिति को समाकर स्वयं सूरदास ने कृष्ण के प्रति प्रेम को अभिव्यक्ति प्रदान की हैं। इतनी तन्मयता के साथ ने उसका चित्रण किया है कि दृश्य आँखों के सामने सहज की आ जाता हैं।
अन्य पढें -