आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित निबंध 'करुणा' एक मनोवैज्ञानिक निबंध है, जिसमें करुणा नामक मनोविकार का विवेचन किया गया है। 'करुणा' निबंध का सार इस प्रकार है-
करुणा का अर्थ एवं अन्य मनोविकारों से संबंध:- करुणा का भाव बालक में संबंध का ज्ञान होने के साथ ही उत्पन्न हो जाता है। बिना कुछ कहे माँ को रोता देखकर वह भी रोने लगता है। 'करुणा' क्रोध की मूल अनुभूति दुख के वर्ग का भाव है, परन्तु प्रकृति की दृष्टि से क्रोध करुणा से भिन्न होता है। क्रोध में हानि तो करुणा में दूसरों की भलाई की भावना रहती है किंतु आनंद की श्रेणी का कोई भी मनोविकार दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए उत्तेजित नहीं करता। लोभ आनंद का मनोविकार है। व्यक्ति को जिस वस्तु के प्रति लोभ होता है, वह उसे कभी हानि नहीं पहुंचाता है।
करुणा और क्रोध- अपने परिणाम की परम्परा में दु:ख का उल्टा क्रोध है। क्रोध में मनुष्य दूसरे का अनिष्ट करता है और करुणा में वह दूसरे की भलाई करता है। चाहे ये पैदा सुख और दु:ख से ही है, तथापि दोनों के परिणाम भिन्न-भिन्न होते हैं। दु:ख से पैदा होने वाले मनोभाव चाहे दूसरे को हानि की प्रेरणा दे सकते हैं, परन्तु सुख से उत्पन्न मनोभावों में ऐसा नहीं होता, यद्यपि हम सामाजिक प्राणी हैं और हमारे सुख-दु:ख भी परापेक्षी हैं।
यहाँ पर हम देखते हैं कि मनुष्य दु:ख की अवस्था में तो जातिगत भावनाओं से ऊँचा रहकर दु:खी होता है, परन्तु जब सुख का प्रसंग आता है, तो यह केवल मात्र अपने सम्बन्धी या मित्र के सुख में ही सुखी होता है। दूसरे से प्राप्त होने वाले सुख का कोई दूसरा नाम नहीं पाया जाता, परन्तु दूसरों के दु:ख के परिज्ञान से जो दु:ख होता है, वह करुणा, दया आदि नामों से पुकारा जाता है। वैसे तो करुणा सब पर होती है, पर अपनों के प्रति उसकी भावना अधिक तीव्र पाई जाती है। किसी सुन्दरी, किसी महात्मा या भाई-बंधु को दु:खी देखकर हम अधिक दु:खी हो जाते हैं। शायद यह तीव्रता जीवन निर्वाह की सुगमता और कार्य-विधान की पूर्णता के लिए की गई है।
करुणा सात्विकता का प्रसार करती है- मनुष्य की प्रगति में शील और सात्विक भावों का आदि संस्थापक ये ही मनोविकार हैं। मनुष्य की सज्जनता और दुर्जनता उसके संसर्ग से ही जानी जाती है। जीवन से दूर रहकर उसके सब कर्म निर्लिप्त होंगे, पर संसार में प्रत्येक वाणी के जीवन का उद्देश्य दु:ख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति है।
अब जिन कर्मों से सुख की प्राप्ति हो, उन कर्मों को सात्विक कर्म कहते हैं। अपने आचरण द्वारा हम दूसरे के सम्भाव्य दु:ख का ध्यान या अनुमान, जिसके द्वारा हम ऐसी बातों से बचते हैं, जिनसे अकारण दूसरे को दु:ख पहुँचे, शील या साधारण सदवृत्ति के अन्तर्गत समझा जाता है। पर कई बातें ऐसी होती हैं, जो शील के क्षेत्र से निकल कर नियम की दुनिया में चली जाती हैं।
ऐसे असत्य भाषण नहीं करने चाहिए, परन्तु मनोरंजन या किसी दूसरे की रक्षा के लिए किया गया असत्य-भाषण भी बुरा नहीं होता। इसे चाहे नियम में बुरा कहा जाय, पर शील में यह सब ग्राह्य है। इसका कारण हृदय की पवित्रता तथा परोपकार की प्रवृत्ति है। यही करुणाशील और सात्विकता प्रदान करती है। किसी व्यक्ति पर यदि हमारे मन में श्रद्धा है, तो उसका मूल भी सात्विक शीलता ही है। अत: करुणा और सात्विकता का सम्बन्ध इस बात से भी प्रमाणित होता है कि किसी पुरुष को दूसरे पर करुणा करते देख, तीसरे की करुणा करने वाले पर श्रद्धा हो जाती है। मनुष्य का आचरण भी मनोवेगों की प्रवृत्ति का परिणाम है, अतः इस क्षेत्र में भाव उमड़ पड़ते हैं और बुद्धि रह जाती है।
करुणा और शोक- प्रिय के वियोग से जो दु:ख होता है, वह करुणा कहलाता है, क्योंकि उसमें भी दया व करुणा का अंश मिला होता है। वह दूर रहने वाले व्यक्ति के सुख के अभाव की चिंता में प्रकट होता है। राम-जानकी के वन चले जाने पर कौशल्या उनके सुख के अनिश्चय पर इस प्रकार दु:खी होती है
बन को निकरि गए, दोऊ भाई।
सावन गरजै, भादों बरसै पवन चले पुरवाई,
कौन बिरछ तर भीजत है है, राम-लखन दोऊ भाई।
श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर यशोदा की चिंता इस प्रकार व्यक्त होती है-
प्रात समय उठि माखन रोटी को बिन माँगे दैहे?
को मेरे बालक कुँवर कान्ह को छिन-छिन आगे लैहै?
वियोग की दशा में गहरे प्रेमियों को प्रिय के सुख का अनिश्चय ही नहीं, कभी-कभी घोर अनिष्ट की आशंका तक होती है। जैसे-एक पति वियोगिनी स्त्री संदेह करती है
नदी किनारे धुआँ उठत है, मैं जानूँ कछु होय।
जाके कारण मैं जली, वही न जलता होय।।
प्रिय के वियोग को शोक कहते हैं, पर फिर भी उसमें करुणा का समावेश आवश्यक होता है। शोक और करुणा में विह्वल होकर मानव अपन सम्बन्धियों से किए गए अन्याय के लिए पछताता भी है।
करुणा में सामाजिकता- पश्चिम के समाजशास्त्री चाहे आत्मरक्षा की भावना में करुणा को महत्व देते हैं, परन्तु वास्तव में यह सत्य नही, क्योंकि मनुष्य किसी के प्रति आज करुणा करके आने वाले युग में, उससे करुणा की कामना नहीं करता। यदि ऐसा होता तो वह निर्बल पर करुणा न करके सदा बलवानों पर करुणा करता, परन्तु करुणा नहीं करता, परन्तु ऐसा होना तो नहीं है।
कभी-कभी मानव दूसरों को कष्ट में देखकर दु:खी तो होता है, परन्तु करुणा नहीं करता, तो वह सहानुभूति कहलाती है। आज तो सहानुभूति भी केवल आडम्बर मात्र हो गई है। अन्य भावों के समान करुणा की प्रतिभावना करुणा नहीं होती। सीमित स्थान विशेष के ज्ञान की परिधि को लाँघकर स्मृति, अनुमान और ज्ञान से मानव देश और काल का विस्तार करता है। किसी को मार खाते देखकर हमें दु:ख होता है, पर उसके अपराधों की लम्बी कहानी सुनकर हमारा वह भाव समाप्त हो जाता है। मन की रागात्मक क्रिया इन मनोवेगों को विस्तृत और सीमित करती रहती है। इन मनोवृत्तियों का दमन नहीं किया जा सकता, जबकि संसार की सभी वस्तओं के मूल में ये मनोवृत्तियाँ ही कार्य किया करती हैं। कवि इसी से आत्म-विस्तार कर प्रकृति से सम्बन्ध स्थापित करता है, पर यदि इनका सही उपयोग न किया जाय, तो ये मनोभाव कुण्ठित हो जाते हैं।
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