ध्रुवस्वामिनी की चारित्रिक विशेषताएँ।

ध्रुवस्वामिनी का चरित्र-चित्रण 

'ध्रुवस्वामिनी' नाटक की नायिका 'ध्रुवस्वामिनी' प्रसादजी के श्रद्धा भाव की ही प्रतीक है। नाटक में वह स्त्री पात्रों में सबसे प्रधान पात्र है। उसे वास्तव में इस नाटक की नायिका कहा जा सकता है क्योंकि समस्त नाटक की कथा उसी पर आधारित है और नाटक का नामकरण भी उसी के नाम पर किया गया है। शास्त्रीय दृष्टि से भी वह नाटक के प्रधानकाल की उपभोक्ता है। साथ व उच्च कुल से संबंधित एक शीलवान नारी है। वह इस नाटक की सारी घटनाओं का संचालन ही नहीं करती अपितु उनकी सूत्रधार भी है। रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी के पत्नीत्व और स्त्रीत्व के रूप को प्रकाश में लाता है। मन्दाकिनी और चन्द्रगुप्त उसके प्रेमिका रूप पर प्रकाश डालते हैं। ध्रुवस्वामिनी के चरित्र-चित्रण में प्रसाद जी को पूर्णतः सफलता मिली है। प्रसादजी ने ध्रुवस्वामिनी के रूप में एक आदर्श भारतीय ललना का चरित्र प्रस्तुत किया है।


अनादृत-ध्रुवस्वामिनी गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त की पत्नी है, किन्तु उसका जीवन विवशता की एक दु:ख भरी कहानी है। विवाह होने के पूर्व व पश्चात् भी उसे अपने पति से वह प्यार नहीं मिला जिसकी वह अधिकारिणी थी। उसके प्रथम कथन से ही यह बात प्रकट होती है- "मुझ पर राजा का कितना अनुग्रह है, यह भी मैं आज तक न जान सकी। मैंने तो कभी उनका मधुर भाषण सुना ही नहीं। विलासियों के साधु मदिरा में उन्मत्त उन्हें अपने आनन्द से अवकाश कहाँ।"


विवश- ध्रुवस्वामिनी राज्य-हितैषी होते हुए भी नितांत असमर्थ है। वह अपने अधिकारों का उपभोग करने में सक्षम नहीं। ध्रुवस्वामिनी के ये शब्द इसी बात की पुष्टि करते हैं- 'मैं महादेवी ही हूँ न? यदि यह सत्य है तो क्या तुम मेरी आज्ञा से कुमार चन्द्रगुप्त को यहाँ बुला सकती हो?' इसके उत्तर में परिचारिका के वे शब्द और भी विचारणीय हैं-'क्षमा कीजिए, इसके लिए तो पहले आर्य से पूछना होगा।'


स्वाभिमानी- ध्रुवस्वामिनी एक सम्मानप्रिय नारी है। उसे अपने श्वसुर कुल की पावन कीर्ति पर भी गर्व है। शकराज द्वारा प्रस्तुत अपमानजनक सन्धि प्रस्ताव के रामगुप्त द्वारा स्वीकार कर लिए जाने पर वह अपनी रक्षा के लिए , वंश-मर्यादा की रक्षा के लिए स्वयं कटिबद्ध हो जाती है, वह अपने सम्मान की रक्षा के लिए आत्महत्या तक करने को तैयार हो जाती है।


भावुक तथा कठोर नारी- ध्रुवस्वामिनी के चरित्र में जहाँ एक ओर भावुकता के दर्शन होते हैं, वहीं दूसरी ओर कठोरता की झलक भी दिखाई देती है। आरम्भ में उसका जीवन असहाय, अबला और कोमल नारी का जीवन है। उसका जीवन करुणा की कहानी है। वह अपनी रक्षा के लिये रामगुप्त के समक्ष याचना करती है। परंतु परिस्थितियाँ उसके चरित्र में परिवर्तन ला देती हैं। वह जिस रामगुप्त के समक्ष याचना करती हैं, उसी के लिए अत्यंत कठोर बन जाती है।


नेतृत्व शक्तिसम्पन्न नारी- ध्रुवस्वामिनी की नेतृत्व शक्ति प्रमुख रूप से उस समय देखने को मिलती है, जब शक-दुर्ग में आकर रामगुप्त अपना अधिकार प्रदर्शित करता है तथा वह स्वयं रामगुप्त को फटकारती है। जब रामगुप्त उसे डाँटता है, तो वह मुँह-तोड़ उत्तर देती है।

अंतर्द्वन्द्व की प्रधानता- ध्रुवस्वामिनी का बाह्य रूप आदर्शमय और अनुकरणीय है, परन्तु उसके हृदय में दो विरोधी विचारों के बीच द्वंद्व चलता रहता है। वह रामगुप्त की पत्नी होते हए भी चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है।


आत्मविश्वास- ध्रुवस्वामिनी में आत्मविश्वास की प्रबलता है। वह प्रत्येक क्षण अत्याचार का विरोध करती है। शक-दुर्ग में भेजे जाने के प्रस्ताव का विरोध करती हैं-"कुछ नहीं मैं केवल. यही कहना चाहती हूँ कि पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-सम्पत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता । यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते हो।" इतना ही नहीं वे दूसरों को भी यही शिक्षा देती हैं कि वे अत्याचार को सहन कर अत्याचारी का साहस न बढ़ाएँ।


व्यवहारकुशल एवं शिष्ट- ध्रुवस्वामिनी व्यवहारकुशल एवं शिष्ट नारी है। यही कारण है कि वह हिजड़े और भौंडे अभिनय में रुचि नहीं लेती, वरन् उसकी भर्त्सना करते हुए कहती है-"निकलो! अभी निकलो, यहाँ ऐसी निर्लज्जता का नाटक मैं नहीं देखना चाहती।" इसके विपरीत वह मीठी चुटकी लेने में व्यंग्य विनोद में पूर्ण कुशल है। वह अत्यन्त चुटीला व्यंग्य कसते बड़ी सरलता से कहती है-"महाराज! किन्तु मैं भी यह जानना चाहती हूँ कि गुप्त साम्राज्य क्या स्री सम्प्रदाय से ही बड़ा है?"


पुरुष जाति से घृणा- यद्यपि ध्रुवस्वामिनी पुरुष जाति से घृणा करती है, किन्तु स्त्री होने के कारण वह हृदय की पुकार को अनसुना भी नहीं कर सकती। उसे रामगुप्त से प्रेम नहीं, वह यह

भी पसन्द नहीं करती कि कोई उसे चन्द्रगुप्त के सिवाय रामगुप्त की पत्नी के नाते सम्बोधित करे।  उसका स्मरण ही उसे आत्मविभोर बना देता है-"कुमार की स्निग्ध, सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो सकता है।"


स्त्रीत्व की साकार प्रतिमा- ध्रुवस्वामिनी स्रीत्व की साकार प्रतिमा है। उसके हृदय से यह रूप तब प्रकट होता है, जब वह कोमा को शकराज का शव ले जाने की आज्ञा सहर्ष प्रदान करती है।


वीर क्षत्राणी- ध्रुवस्वामिनी एक वीर क्षत्राणी है। वह बलि के बकरे की भाँति उपहार बनकर शकदुर्ग में नहीं जाना चाहती, वरन् सामन्तों और स्त्री वेशधारी चन्द्रगुप्त को साथ लेकर शकदुर्ग में प्रवेश करती है। शकदुर्ग को विजय कर वह वहाँ की स्वामिनी बन जाती है।


नियतिवादी- वीर क्षत्राणी होते हुए भी ध्रुवस्वामिनी नियति में विश्वास रखती है। आत्मविश्वास की भी उसमें कमी नहीं। उसका यह कथन इस बात की पुष्टि करता है........... ..."हाँ, यौवन के लिए कृतज्ञ, उपकृत और आभार होकर किसी के अभिमानपूर्ण आत्मविज्ञापन का भार ढोती रहूँ, यही क्या विधाता का निष्ठुर विधान है? छुटकारा नहीं? जीवन नियति के कठिन आदेश पर चलेगा ही? तो क्या वह मेरा जीवन भी अपना नहीं?"


उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि ध्रुवस्वामिनी के चरित्र में वे सभी विशेषताएँ हैं जो एक आदर्श भारतीय नारी में होनी चाहिए। उसमें स्त्री सुलभ कातरता है. तो अदम्य उत्साह और साहस भी उसमें विरक्ति है, तो प्रेम भी। वह स्री जाति की प्रतिनिधि बनकर अवतरित हुई है। उसे नारी जीवन की विवशता के प्रति पूर्ण सहानुभूति है। आत्म-सम्मान की भावना उसके हृदय मे कूट-कूटकर भरी हुई है। वंश की मर्यादा का भी उसे पूरा ध्यान है। अंत में हम कह सकते है। कि ध्रुवस्वामिनी का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। उसके चरित्र में समस्त मानवीय भावनाओं का समावेश है।

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