नाटक क्या है- परिभाषा, तत्व और नाटक का क्रमिक विकास।

प्रिय पाठकों इस लेख में हमने नाटक क्या है और इसकी परिभाषा व तत्व एवं नाटक के विकास के बारे में सम्पूर्ण जानकारी दी गई है इस लेख को अंत तक पूरा पढें। और कोई Question है तो comment में पूछे।

 

नाटक की परिभाषा व तत्व

परिभाषा- "नाटक वह रचना है जो अभिनेता द्वारा खेले जाने के लिये लिखी गई हो।"

"वह रचना जो मधुर एवं ललित पदों तथा अर्थों से युक्त सरल शब्दार्थ से परिपूर्ण, विद्वानों के लिये सुखमय, बुद्धिमानों के लिये अभिनय योग्य, अनेक रसों से समाविष्ट तथा संधि योग से सम्पन्न हो, नाटक कहलाती है।"

नाटक के प्रमुख तत्व छः हैं-

1. कथानक 

2. कथोपकथन या संवाद 

3. पात्र और उनका चरित्रांकन 

4. अभिनेयता 

5. शैली 

6. उद्देश्य 

7. देशकाल।

1. वस्तु या कथानक के भेद- संस्कृत के आचार्यों ने अधिकारी की दृष्टि से वस्तु के दो भेद किये हैं- आधिकारिक और प्रासांगिक। अधिकारी, अर्थात् नायक से सम्बन्ध रखने वाली, कथा 'आधिकारिक' कहलाती है। यह नाटक की मुख्य कथा होती है। नाटक में वे कथाएँ, जो गौण हुआ करती हैं और विशेष स्थिति में मूल कथा को सहायता पहुँचाया करती हैं, उन्हें 'प्रासंगिक' कथा कहते हैं। इन प्रासंगिक कथाओं में जो दूर तक चलती हैं और मूल कथा में बहुत ही

अधिक सहायता और योग देती हैं, उन्हें पताका कहते हैं तथा जो कथाएँ छोटी होती हैं, और किसी विशेष अवसर पर आकर मुख्य कथा की सहायता कर समाप्त हो जाती हैं, उन्हें प्रकरी कहते हैं।


अभिनय के भेद से भी कथाएँ दो प्रकार की होती हैं- वाच्य तथा सूच्य। जिस कथा की विवृति नाटक के प्रमुख पात्रों के संवादों एवं कार्यों द्वारा होती है, वह 'वाच्य' कहलाती है, परन्त किसी कथा के अंतर्गत, जो घटनाएँ कार्य की सिद्धि से सीधा सम्बन्ध नहीं रखतीं, उन्हें काट-छाँटकर अलग तो करना पडता है, परन्तु कथा की अखंडता के लिए, उनकी सूचना अवश्य दी जाती है। ऐसी ही घटनाएँ 'सूच्य' कहलाती हैं। इन्हें विष्कम्भक, प्रवेशक, चूलिका; अंकावतार और अंकास्य द्वारा दर्शकों को सूचित किया जाता है।  

   

इस प्रकार संस्कृत के नाट्यकर्ताओं ने नाना दृष्टियों से नाटक के कथानक (या वस्तू) का विचार प्रस्तुत किया है। उसके विकास तथा परिवर्तन के लिए पाँच अवस्थाओं- (1) आरम्भ (2) यत्न (3) प्राप्त्याशा (4) नियताप्ति और (5) फलागम,

पाँच अर्थ प्रकृतियों-(1) बीज (2) बिन्दु (3) पताका (4) प्रकरी और (5) कार्य तथा संधियों-(1) मुख (2) प्रतिमुख (3) गर्भ (4) अभिमर्श या विमर्श (5) निर्वहण (या उपसंहार) का विधान आचार्यों ने किया है। इन पंच अवस्थाओं, पंच अर्थप्रकृतियों और पंच संधियों के अंतर्गत ही नाटक को आधिकारिक तथा प्रासंगिक कथाओं का संगठन एवं विकास होना आवश्यक है।


2.  संवाद या कथोपकथन- संवादों द्वारा ही नाटक का कथानक आगे बढ़ता है। दर्शकों के नाटक को सुन्दर और उपयोगी बनाने के भरतमुनि का यह निर्देश महत्वपूर्ण है- "नाटक मृदु  तथा ललित पदों से युक्त तथा अस्पष्ट शब्द-अर्थ से हीन होना चाहिए। बुद्धिमानों को सुख देने वाला, बुद्धिमानों द्वारा खेला जा सकने वाला बहुत से रसों को व्यक्त करने का मार्ग खोलने वाला, ठीक संधियों से सधा हुआ नाटक दर्शकों के लिए उपयोगी होता है" इस प्रकार भरतमुनि ने संवाद-योजना के लिए तीन बातें स्पष्टतः प्रतिपादित की हैं। एक तो यह कि संवाद कहीं भी ऐसा न होना चाहिए, जिसका अर्थ समझने से श्रोताओं को कठिनाई हो। दूसरी बात यह कि संवाद नीरस नहीं होने चाहिए। उसमें कोरी सूचनात्मकता न होकर सरसता होनी चाहिये। संवादों को अलंकारों से बोझिल करके उनमें अस्पष्टता और अस्वाभाविकता न भर देना चाहिये। तीसरी बात यह है बद्धिमान लोग ही उसे खेल सकते हैं। संवाद के लिये औचित्य-बहुमत ही का अधिक महत्व होता है। कौन बात, किस समय और किस ढंग से कही जानी चाहिये, इसका ध्यान रखकर विरचित संवाद ही दर्शकों के हृदय को आकृष्ट करता है, दूसरी नहीं।

संवाद के लिए काव्य के अन्य समस्त गुणों के अतिरिक्त दो गुणों की आवश्यकता अनिवार्य है। एक है प्रसाद गुण, दूसरा है कुतूहल। 'प्रसाद' गुण के द्वारा वक्ता की बात श्रोता के हृदय तक पहुँचती है। 'कुतहूल' के द्वारा दर्शन की प्रवृत्ति नाटक देखने की ओर स्वतः जागरूक रहती है। यदि संवाद कुतूहलवर्धन न करेगा, तो वह फीका, अरुचिकर तथा अनाकर्षक होगा। संवाद में सदा आकर्षण रहना चाहिये। संवाद के दोष होते हैं- (1) क्लिष्ट (2)अश्लील (3) अमंगल और (4) संदिग्ध अर्थ। दोषों से रहित तथा प्रसाद, माधुर्य और औचित्य आदि गुणों से युक्त कथोपकथन या संवाद का नाटकों में रहना श्रेयस्कर होता है।


3. पात्र और उनका चरित्रांकन- नाटक का सर्व-प्रमुख पात्र नेता या नायक कहलाता है। आचार्यों ने इसके कतिपय ढाँचे पहले से ही बना रखे हैं, जिनके अन्दर प्रत्येक नाटक के नेता के चार प्रधान भेद हैं- 

(1) धीरोदात्त (2) धीरललित (3) धीर प्रशान्त और (4) धीरोंद्धत। प्रथम कोटि का नायक प्रायः राजा या राजकुल में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति होता है। नायक के समस्त शोभन तथा सामान्य गुण उसमें पाये जाते हैं। धीरललित नायक कला- प्रेमी, रसिक तथा विलास-लिप्त रहने वाला होता है। धीर-प्रशान्त ब्राह्मण या वैश्य जाति का कला-प्रेमी नायक होता है। धीरोद्धत नायक घमण्डी, ईर्ष्यालु, बकवादी और छली होता है। एक बार जिस पात्र की जो प्रकृति स्वीकार कर ली जाती है, पूरे नाटक में उसी प्रकार निर्वाह करना पड़ता है। उसकी बोल-चाल, भाषण-वाचन सब उसकी प्रकृति के अनुरूप होने चाहिये। संस्कृत-नाटकों में विदूषक का महत्वपूर्ण स्थान है। भाजन में अत्यासक्ति उसकी प्रधान रुचि है और अपने वचनों से दर्शकों के हृदय में हास्य उत्पन्न करना उसका मुख्य कार्य है।


नाटक में पात्रों के चरित्र-चित्रण का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। कथोपकथन, वेश-भूषा, भाव-भंगिमा के द्वारा पात्रों का चरित्र-चित्रण होता है। इनसे हम समझते हैं कि पात्रों का जीवन-दर्शन कैसा है-उनके विश्वास कैसे हैं, उनकी मान्यताएँ कैसी हैं। चरित्र-चित्रण में ध्यान की बात यह है कि पात्रों का चित्रण सजीव हो। वे जीवन के चलते-फिरते मनुष्य हों। उनमें स्वाभाविकता हो। यदि पात्रों के चरित्र-चित्रण में ये बातें पायी जाती हैं, तो समझ लीजिये कि नाटककार को अपने प्रयास में सफलता मिली है, अन्यथा नहीं।


4. शैली - शैली से अभिप्राय भाषा की प्रासादिकता और मधुरता के अतिरिक्त नाटकों में दृश्य-विधान , अन्तर्द्वन्द्व की योजना और घटनाओं के संघटन में चमत्कारमयी नाटकीयता और नाटक की अभिनयशीलता आदि से है। भाषा के सरल, सुबोध एवं माधुर्यगुण-सम्पन्न हुए बिना न तो उसमें रोचकता आ सकती है और न सरसता। इसी प्रकार नाटक रंगमंच पर सफल हो इसके लिए नाटककार को दृश्य-विधान पर ध्यान देना आवश्यक है। संस्कृत के नाटक तो अंकों में विभाजित होते थे, परन्तु हिन्दी में अंग्रेजी नाटकों के अनुकरण पर अंकों का विभाजन दृश्यों में होने लगा। संस्कृत नाटकों के अंक की घटनाएँ मंच पर एक दृश्य को पुष्ट-भमि में रखकर अभिनीत होती थीं। परन्तु हिन्दी में अंकों का विभाजन दृश्यों में हो जाने से मंच-व्यवस्था में जटिलता आ गयी है। अतः अब नाटककार को देखना पड़ता है कि कितने अंकों एवं दश्यों मे कथावस्तु का विभाजन करने से नाटक अच्छा होगा। इस दृश्य-विधान का महत्व समझने से नाटक विशेष प्रभावोत्पादक होता है।


5. उद्देश्य- प्रत्येक नाटककार का कुछ-न-कुछ अपना उद्देश्य होता है। वह अपने नाटकों द्वारा उन्हीं उद्देश्यों को सफल बनाना चाहता है। नाटककार की सफलता इसी बात में है कि वह अपने उद्देश्य को पाठकों या दर्शकों के सामने किस कौशल से रखता है। इसमें वह जितना कौशल दिखाएगा, वह उतना ही सफल नाटककार होगा। सेठ गोविन्ददास के मतानुसार "नाटक में किसी विचार की आवश्यकता है।" विचार का अर्थ यहाँ साधरण विचार न होकर जीवन की कोई समस्या है। विचार की उत्पत्ति के बाद उस विचार के विकास के लिए संघर्ष आवश्यक है।

जिस नाटक में जितना महान् विचार होगा, जितना तीव्र संघर्ष होगा, इसके द्वारा नाटकादि का समय उस समय तत्कालीन परिस्थितियों, वेश-भूषा तथा सामाजिक स्थिति प्रस्तुत कर उन्हें आज के संदर्भो से चरितार्थ किया जाता है। अतः देशकाल या वातावरण का रखा जाना नाटक के लिए उचित ही है।



हिन्दी नाटकों का क्रमिक विकास 


1. भारतेन्दुजी से पूर्व नाटकों की स्थिति- हिन्दी में नाटकों का प्रारंभ विलम्ब से हुआ। मुस्लिम शासनकाल में लेखकों का ध्यान इस ओर नहीं गया। अव्यवस्थित वातावरण तथा मुसलमानों का धार्मिक, दृष्टकोण नाटक के विकास में बाधक रहा। गद्य का सम्यक् विकास न होने से भी नाटकों को प्रोत्साहन न मिल सका। भारतेन्दु हरिशचन्द्र के पूर्व कुछ नाटक मिलते हैं, उनमें गद्य की भरमार तथा रंगमंच की अनुपयुक्तता है। सत्रहवीं शताब्दी में बनारसीदास कुछ समय सार (1962) प्राणचन्द्र कृत 'रामायण महानाटक' (दोहा चौपाइयों) देवकृत माया प्रपंच (पद्य), प्रबंध चन्द्रोदय आदि नाटक मिलते हैं। ये नाटक कला की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इनमें रंगमंच की विफलता का सर्वथा अभाव था। अठारहवीं शताब्दी में नाटकों की स्थिति अत्यन्त दुर्बल रही इस समय संस्कृत के कुल नाटकों का अनुवाद अवश्य हुआ। भारतेन्दुजी ने विश्वनाथसिंह के 'आनंद रघुनन्दन' को प्रथम गद्य नाटक माना है। बृज भाषा गद्य में भारतेन्दुजी के पिता गिरधर कृत 'नहुष' सर्वप्रथम नाटक है।


2. भारतेन्दु युग- भारतेन्दु हरिशचन्द्र को ही हिन्दी का प्रथम नाटककार होने का गौरव प्राप्त है। उन्होंने छोटे-बड़े 18 नाटक लिखे, जिनमें कुछ अनुवाद भी हैं। 'विद्यासागर' और 'चोर पंचशिका' बंगला के नाटकों का छायानुवाद है। भारतेन्दु के नाटकों में विषयगत तथा शैलीगत नवीनताएँ हैं। उनके नाटकों में समाज की दुर्दशा का चित्रण करके सुधार की प्रेरणा तथा देशप्रेम का स्वर है। भारतेन्दुजी के मुद्राराक्षस, नीलदेवी, सत्य हरिशचन्द्र, प्रेम योगिनी, चन्द्रावली. भारत दुर्दशा, वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति आदि प्रमुख नाटक हैं। भारतेन्दु की प्रेरणा में उनके मंडल के लेखकों ने भी नाटक लिखे। इनमें तोताराम का 'केती कृतान्त' श्री निवासदास के तप्ता संवरण 'प्रहलाद चरित्र', संयोजकता 'स्वयंवर', बद्रीनारायण चौधरी ने प्रेमधन का 'भारत सौभाग्य', प. गदाधर भट्ट के 'रेल का विकट खेल', 'बाल-विवाह', 'चन्द्रसेन', पं. प्रतापनारायण मिश्र के 'गौसंकट', 'कलि प्रभाव', राधाकृष्णन का दुखिन वाला केसल, भट्ट का सज्जाद सम्बुल आदि प्रमुख हैं।


3. द्विवेदी युग- भारतेन्दु युग में नाटकों में अनुवाद की जो परम्परा स्थगित हुई थी, वह चलती रही, रवि बाबू और द्विवेन्द्रीलाल राय के नाटकों का बंगला में अनुवाद हो रहा था, कुछ मौलिक नाटक भी लिखे गए। कुछ मौलिक नाटकों में जहाँ साहित्यिकता थी, वहीं कुछ पारसी रंगमंच से भी प्रभावित थे। मिश्र बन्धुओं का 'नेत्रोन्मोलन' तथा गुप्तजी का चन्द्रहास साहित्य नाटक है। पं. राधेश्याम कथावाचक, हरिकृष्ण जौहर और नारायणप्रसाद बेताब ने पारसी रंगमंच के अनुकूल नाटक लिखे।


4. प्रसाद युग- आपका आविर्भाव नाटक के क्षेत्र में क्रांतिकारी व्यक्तित्व को लेकर हुआ। प्रसादजी द्वितीय उत्थान के प्रतिनिधि नाटककार हैं। प्रसादजी के नाटकों में भारत की प्राचीन संस्कृति सजीव हो उठी। आपके नाटकों के कथानक महाभारत से लेकर हर्षवर्धन के समय तक विस्तृत है। प्रसादजी के नाटक साहित्यिक होने के कारण परिष्कृत रुचि के दर्शकों के लिए विकसित रंगमंच पर अभिनीत किये जा सकते हैं। उनके सभी नाटक बाह्यद्वंद्व और अन्तर्द्वन्द्व का समन्वय लेकर उपस्थित होते हैं। अजातशत्रु, चंद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, कामना, एक घूँट राजश्री सज्जन, प्रायश्चित, जनमेजय का नागयज्ञ आदि प्रसादजी के प्रसिद्ध नाटक हैं।


5. वर्तमान युग- वर्तमान युग में नाटक की काया ही पलट गई। नाटय साहित्य में बंधन ढीले पड़ने के कारण नाटककारों का ध्यान स्वाभाविकता की ओर गया। रंगमंच के अनुकूल नाटक रचे जाने लगे और नाटकों का विषय मध्य वर्ग बन गया। नाट्य-साहित्य यथार्थ जीवन के अधिक समीप आ गया है। सुदर्शन, गोविन्द वल्लभ पंत तथा उदयशंकर भट्ट आदि इस कोटि के नाटककार रहे हैं। लक्ष्मीनारायण मिश्र राजयोग, सिन्दूर की होली आदि समस्यात्मक नाटक लेकर हिन्दी जगत में आये। वर्तमान नाट्य-साहित्य द्रुतगति से विकास के पथ पर है।


निष्कर्ष- कहा जा सकता है कि नाटक की वर्तमान गति पूर्ण संतोषप्रद है, किन्तु साथ ही यह जोड़ना भी प्रासंगिक है कि हिन्दी नाटकों का मंचन पूर्व में भी समस्या थी और अब भी है। अतः रंगमंच की व्यवस्था किये बिना नाट्य लेखक बेमानी है।

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