सूरदास की भक्ति भावना संक्षिप्त विचार व्यक्त कीजिए।
भक्ति का अर्थ है भजना। व्युप्तत्ति के अनुसार 'भक्ति' शब्द 'भज सेवायन् धातु से क्तिन' 'प्रयय' लगाकर बना हैं, जिसका अर्थ है- भगवान का सेवा प्रकार | शांजिल्ड भक्ति-सूत्रकार ने लिखा हैं - 'सा परानुर-क्तिरी श्वरे' । मुक्ति का सबसे सरल उपाय है - भक्ति । अत: विविध विद्वानों ने अनेक प्रकार से भक्ति का प्रतिपादन किया हैं।
० सूर की भक्ति-भावना
भगवान कृष्ण के अनन्य आराधक महाकवि सूर सर्वाधिक ख्याति-प्राप्त और अष्टछाप के सुदृढ़-स्तम्भ हैं। उन्होंने पुष्टिमार्गीय सिद्धान्तों को स्वीकार करके कृष्ण के प्रति प्रारम्भ में भाव और बाद में सख्य भाव की भक्ति की पुष्टिमार्गीय भक्ति का अर्थ हैं- भगवान का अनुग्रह । भक्त परमात्मा की कृपा को सबसे बड़ा समझता है तथा प्रेम भाव से प्रभु की अनेक लीलाओं का गुणगान करता हैं । सूर के काव्य में यही भाव विद्यमान हैं।
सूर का प्रतिनिधित्व काव्य हैं- 'सूरदास' । इसका मूल भाव है 'रति' । भगवद् विषयक रति ही भक्ति कहलाती हैं। सूर ने सूरसागर मे विनय के पदो में भक्ति-भावना का समावेश किया है। सूर प्रारम्भ में निराकार ब्रह्म की उपासना करते थे। परन्तु 'अविगक गति कछु कहत न छाबैं' कहकर बाद में उन्होंने साकार ब्रह्म की उपासना की। प्रारम्भ में वे दास्य- भाव की भक्ति करते थे। स्वयं को दीन-हीन और महा-पतित समझते थे- 'प्रभु हौं सब पतितनि को टीकौं ।' महापतित होने पर भी वे प्रभु से अपने उद्धार की याचना करते हैं और कहते हैं कि यदि आपने मेरा उद्धार नहीं किया तो संसार में आपका अपयश फैल जायेगा क्योंकि आप तो गरीब नवाज है। अत: 'कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज'।
० भक्ति के विविध रूप
सूरसागर में सूर ने अनेक प्रकार से भक्ति-भाव प्रस्तुत किए हैं, जो निम्नलिखित हैं -
1) प्रेमा भक्ति- जो भक्ति प्रेम-भावना के साथ की जाती हैं, प्रेमा भक्ति कहलाती हैं । सूर की गोपियाँ इसका उतकृष्ट उदाहरण हैं कृष्ण के प्रति गोपियों का जो भक्ति भाव हैं, वह प्रेम से युक्त है। गोपियाँ कृष्ण की अनन्य आराधिका हैं, वे कृष्ण से कान्तासम्मत प्रेम करती हैं। उनके दर्शन के लिए वे सदैव लालायित रहती हैं । अत: उद्धव से कहती हैं
"अंखिया हरि दरसन की भूखी।
कैसे रहतिं रूप-रस राँची, ये बतियाँ सुनि रुखीं।"
2) दास्य भक्ति- सूर के काव्य में दास्य-भक्ति के भी दर्शन होते हैं । जहाँ वे स्वयं को प्रभु का दास, सेवक मानते हैं, वहाँ दास्य- भक्ति हैं। इस प्रकार की भक्ति सूर में कम मिलती हैं। प्रारम्भ में वे दास्य-भक्ति ही करते थे। प्रभु के समक्ष उत्पन्न दीन-हीन स्वर में कह उठते हैं -
"लीजै पार उतारि सूर कौं, महाराज ब्रजराज।
नइ न करन कहत प्रभु, तुम को सदा गरीब निवाज ॥"
3) सख्य भक्ति - सूर के मुख्य भक्ति 'सख्य भक्ति' हैं । उन्होंने सख्य भाव से कृष्ण की आराधना की हैं | गोप-ग्वाले और गोपियाँ इस भाव का आधार हैं। दास्य भाव में रमते-रमते सूर प्रभु कृष्ण को सखा मान बैठे और सख्यभाव की भक्ति में तल्लीन हो गये, फिर क्या था? फिर तो अनेक उलाहने, अनेक शिकायतें दूर करने के साथ-साथ लड़ने-झगड़ने भी लगे और जबरदस्ती अपना उद्धार करवाने लगे -
"आजु हौं एक-एक करि टरि हौं।
कै तुम्हीं के हमहीं माधों अपने भरोसे लरिहों।"
4) नवधा भक्ति- सूर सागर में नवधा भक्ति भी मिलती हैं। नवधा भक्ति का अर्थ हैं- भक्ति के नौ रुप। 'श्रीमद् भागवत' में इन रुपों को इस प्रकार बताया है।- श्रवण, कीर्तन पाद-सेवा, अर्चना, वन्दना, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन । सूर में ये सभी रुप उपलब्ध हो जाते हैं। भगवान की लीला का गान करते हुए सूर ने कीर्तन-स्मरण आदि का यत्र तत्र उल्लेख किया हैं। पुष्टि मार्ग में भगवान का अनुग्रह ही भक्ति का कल्याण करने वाला हैं। अत: सूर ने इसी भाव को अधिक महत्व दिया हैं। भाव-विभोर हो वे कह उठते हैं -
"अपुनपौ आपुन ही बिसर यौ।
जैसे स्वान काँच मन्दिर में भ्रमि भूकि मर् यौ॥
प्रभु से निवेदन करते हुए कवि कहता है -
"अब कै राखि लेहु भगवान।
हौं अनाथ बैठ्यौंदुम-डरिया, पारिधि साधे बान ॥"
5) माधुर्य भाव की भक्ति- वैष्णव भक्ति में माधुर्य भाव की भक्ति को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । कृष्ण के जीवन की विभिन्न लीलाओं से संबधित प्रसंग 'माधुर्य भाव' को व्यंजित करते हैं। गोपियों में कृष्ण के प्रति माधुर्य-भाव की भक्ति हैं। भ्रमरगीत में गोपियों की उक्तियाँ पवित्र, निश्छल और उदार हैं, जिनमें इस भक्ति का उत्कृष्ट रुप मिलता है। यथा -
"उर में माखन-चोर गड़े।
अब कैस हूँ निकसन नहिं ऊधौ, तिरछे ह्यौ जु अड़े ॥"
निष्कर्ष- इस प्रकार भक्ति भावना की दृष्टि से सूर पुष्टि मार्ग के निकट हैं। पुष्टिमार्ग के प्रणेता आचार्य वल्लभ से भेंट होने के बाद सूर सगुण भक्ति की ओर उन्मुख हुए थे। अत: पुष्टिमार्ग से उनका प्रभावित होना स्वाभाविक ही था। भक्ति-भाव की अभिव्यक्ति में वे पूर्णत: सफल रहे हैं। डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने इस संबंध में लिखा हैं-
"उन्होंने (सूर ने) अपने भक्ति सिद्धान्तों को इतना पुष्ट और परिपूर्ण बना दिया कि उसमें एक ओर जहाँ गहन दार्शनिकता आ गयी हैं, वहाँ दूसरी ओर जीवन की कोमल भावनाओं के कारण सुकुमारता, भावुकता और तल्लीनता की भी कमी नहीं हैं। भक्ति को भव्य एवं उदात्त रुप में चित्रित करते समय सूर ने जैसा जयघोष अपने काव्य द्वारा किया वैसा उससे पूर्व किसी लोक भाषा में नहीं हुआ था।"
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