तुलसीदास जी की भक्ति भावना का आदर्श(tulsidas ki bhakti bhavna )

 प्रस्तावना

"जब-जब होइ धरम की हानि, बाढ़हिं असुर महा अभिमानी। 

तब-तब प्रभू धरि मनुज सरीरा, हरहिं सदा सज्जन भव पीरा।।" 

संसार में जब-जब धर्म की हानि होती हैं और असुरों के उत्पात बढ़ते हैं, तब-तब प्रभु मनुष्य का शरीर धारण करके सदा ही सज्जनों और भक्तों के कष्ट का निवारण करने के लिए अवतार लेते हैं। कवि रत्न तुलसी ने निराश हिन्दू जनता को श्रीराम का सुन्दर सन्देश देकर नवीन स्फूर्ति एवं चेतना जागृत की। वास्तव में तुलसी काव्य अमर हैं, जो आज भी शक्ति का पुनीत संदेश देता है। 


० तुलसी की भक्ति-भावना

तुलसी श्रीराम के अनन्य भक्त हैं। उनकी भक्ति चातक जैसी है जिसे केवल एक राम का ही बल है, उन्हीं का भरोसा है  और उन्हीं पर विश्वास हैं-

"एक भरोसो, एक बल एक आस विश्वास ।

एक राम घनश्याम हित,चातक तुलसीदास ॥" 


राम भक्ति करने पर भी तुलसी ने किसी अन्य देवी-देवता की निन्दा नहीं की। उन्होंने 'श्रीराम चरित् मानस' में सभी देवी-देवताओं की स्तुति की हैं। दूसरी बात यह हैं कि सगुण की उपासना करने पर भी उन्होंने निर्गुण का, खण्डन नहीं किया। वे कहते हैं-

"ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव सम्भव खेदा।"


'विनय-पत्रिका' तुलसी की भक्ति की उत्कृष्ट एवं अद्वितीय कृति है। इसमें कवि ने भक्ति की पावगी गंगा प्रवाहित करके भक्तों को कृतार्थ कर दिया है।

'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल' ने इस संबंध में लिखा है-'भक्ति रस का पूर्ण परिपाक जैसी विनय पत्रिका में देखा जा सकता है, वैसा अन्यत्र नहीं हैं।' विनय-पत्रिका की भक्ति में अनन्य निष्ठा, आत्मविश्वास, गहन अनुभूति, विनय, दैन्य और समर्पण आदि विविध भावों के दर्शन होते हैं। उनकी भक्ति के अनेक रुप देखे जा सकते हैं। 


० भक्ति के विविध रूप-

तुलसी के काव्य में भक्ति के विविध रुप मिलते हैं, जो निम्नलिखित हैं-


1) ज्ञान भक्ति- उन्होंने ज्ञान से समन्वित भक्ति का प्रतिपादन किया हैं। अभिप्राय है कि ज्ञान के साथ ही भक्ति का महत्व उन्हें मान्य हैं। उन्होंने श्री रामचरित मानस के उत्तर-काण्ड में ज्ञान और भक्ति पर विस्तार से विचार किया हैं। ज्ञान और भक्ति में कुछ अन्तर न मानते हुए भी। उन्होंने भक्ति की सुगमता और श्रेष्ठता स्वीकार की हैं। तुलसी की ज्ञान भक्ति (ज्ञान से समन्वित भक्ति) में दार्शनिकता का प्राधान्य हैं । संसार, जीव, जगत, माया आदि पर विचार करते हुए उन्होंने प्रभु भक्ति का संदेश दिया हैं। यथा-


केशव ! कहि न जाइ का कहिए। 

देखत तब रचना विविच हरि ! समुझि मनहिं मन रहिए।

    X           X        X           X         X

कोउ कह सत्यझूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोउ मानै।

तुलसीदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै ॥ 


2) दास्य भक्ति- तुलसी की मुख्य भक्ति दास्य भक्ति है। इसलिए वे 'राम बोला नाम है गुलाम राम साहि को' कहकर अपना परिचय देते हैं। उनके आराध्य भगवान राम हैं । वे राम को अपना स्वामी और स्वयं को उनका सेवक मानते हैं । यथा-

"राम सो बड़ा है कौन, मोसो कौन छोटो।

राम सो खरो है कौन, मोसो कौन खोटो॥" 


3) नवधा भक्ति- तुलसी के काव्य में भक्ति के नौ रुप- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवा, अर्चना, वदना, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन स्पष्ट देखे जा सकते हैं। प्रभु के नाम श्रवण (सुनने) को बताते हुए कहते हैं कि उन्होने परमात्मा के नाम को अपने कानों से नहीं सुना, उनके श्रवणरन्ध्र (कानों के छिद्र) सर्प के बिल समान हैं।

जिह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवणरन्ध्र अहि भवन समान हैं। 


4) वात्सल्य भक्ति- वात्सल्य भक्ति की व्यंजना में कवि ने राजा दशरथ, कौशल्या आदि माताओं और गुण विशिष्ट आदि को आश्रय के रुप में और राम को आलम्बन के रुप से प्रस्तुत किया हैं। ऐसे स्थलों पर श्रीराम की बाल-लीलाओं, विविध क्रीड़ाओं और बाल-सुलभ चेष्टाओं की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की है। यथा-

"भोजन करत बोल जब राजा नहिं आवत तजि बाल-समाजा॥

कौशल्य जब बोलन जाई मुकठुमुक प्रभु चलहिं पराई।"


5) माधुर्य भाव की भक्ति- माधुर्य भाव की भक्ति यद्यपि सूर (पुष्टि मार्ग) में मिलती हैं, फिर भी तुलसी ने सीता की ओर से राम के प्रति जो प्रेम व्यक्त किया है, उसमें माधुर्यभाव की भक्ति सहज ही देखी जा सकती हैं। तुलसी की दृष्टि में पति और पत्नी का नाता भी 'राम का नाता' अर्थात् भक्ति हैं। विवाह से पूर्व सीताजी जगदम्बा की पूजा करती हुई यही सोचती हैं -

"तन-मन वचन मोर पनु साचा, रघुपति हद-सरोज चितु राचा।

तौ भगवान् सकल उर बासी , करिहि मोहि रघुबर की दासी॥" 


6) भायप भक्ति- 'भायप भक्ति' के रुप में तुलसी ने लक्ष्मण और भरत को प्रस्तुत किया हैं। राम के वन चले जाने पर राज्य स्वीकार करना, सिंहासन पर चरण-खड़ाऊँ रखकर राज्य करना आदि ऐसे तथ्य हैं, जो भायप-भक्ति के श्रेष्ठ उदाहरण हैं । इसीलिए कवि कहता हैं -

"भायप-भक्ति भरत आचरनू कहत सुनत दु:ख हरनू।"

लक्षमण, राम के साथ वन जाकर अपनी श्रेष्ठ भायप भक्ति प्रदर्शित करते हैं। 


7) गुरु-भक्ति- तुलसी ने गुरु भक्ति को महत्व दिया है कि सज्जनों की संगति के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। श्रीराम चरित मानस में गुरु-महिमा बताते हुए लिखते हैं

"बन्दऊँ गुरु पद पदुम परागा । सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥"



० भक्ति का आधार

तुलसी ने भक्ति का आधार माना हैं- सत्संग । उनका विचार है कि सज्जनों की संगति के बिना मनुष्य का ध्यान परमात्मा में नहीं लग सकता क्योंकि बिना सत्संग के विवेक नहीं होता और विवेक के बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती-

"बिनु सत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥"


निष्कर्ष- इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलसी के काव्य में भक्ति का उत्कृष्ट मिलता हैं यद्यपि उन्होंने भक्ति के विविध रुप प्रस्तुत किए हैं परन्तु इन सबका उद्देश्य एक ही हैं- मोह, माया का त्याग करके पूर्णरुपेण प्रभु भक्ति में लीन होना। वे स्वयं भी अन्तत: यही संकल्प करते हैं- 

अब लौं नसानी अब न नसैहों। 

राम-कृपा नवनिसा सिरानी जागे फिर न डसैंहों।

x                             x                  x

मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहों।


स्पष्ट ही तुलसी का काव्य भक्ति का सुन्दर निदर्शन है। अन्तत: श्री वियोगी हरि के शब्दों में कह सकते हैं- "तुलसी की काव्य-मन्जूषा के भीतर सुरसिक भक्ति पारखी कैसे विलक्षण रत्न पा सकता है, यह बात कहने की नहीं अनुभव करने की हैं।"

अन्य पढें -

1. तुलसीदास जी के दोहे की व्याख्या

2. भक्तिकाल परिचय विशेषताएँ

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