बालक के विकास में विद्यालय की भूमिका।

बालक के विकास में विद्यालय की भूमिका

बालक के विकास में विद्यालय की भूमिका (Role of School)

1. मानसिक शक्तियों का विकास ( Development of Mental Powers)- विद्यालय का सर्वप्रमुख कार्य बालक का मानसिक एवं बौद्धिक विकास करना है, जिससे वह स्वतन्त्रापूर्वक एवं पूर्ण विवेक से विचार कर सकें तथा निर्णय ले सकें। विद्यालय बालक के समक्ष ऐसा वातावरण उत्पन्न करता है जिससे उसमें जिज्ञासा एवं उत्सुकता उत्पन्न हो जाती है तथा वह अपनी रुचि, योग्यता, रुझान और आवश्यकता के अनुसार विकसित होता रहता है।


2. चारित्रिक विकास (Character Development)- विद्यालय का एक अत्यन्त महत्वपर्ण कार्य बालकों के चरित्र का विकास करना है। पहले बालकों के चरित्र के निर्माण का सम्पूर्ण दायित्व परिवार व धर्म दोनों संस्थाओं पर निर्भर था, किन्तु सामाजिक व्यवस्था अब इतनी जटिल हो गई है कि अब ये दोनों संस्थाएँ इस उत्तरदायित्व को बखूबी पूर्ण नहीं कर सकती। ऐसी स्थिति में अब इस दायित्व को पूर्ण करने का कार्य विद्यालय को ही करना पड़ता है। विद्यालय को बालक के चारित्रिक एवं नैतिक विकास हेतु उपयुक्त सामाजिक वातावरण की रचना तथा सामाजिक क्रियाओं की व्यवस्था करनी चाहिए क्योंकि सामाजिक वातावरण में सामाजिकता क्रियाओं के माध्यम से ही बालकों के चरित्र को उन्नत बनाया जा सकता है।


3. सामाजिक भावना का विकास ( Development of Social Feeling)- बालकों को विद्यालय में सामाजिक वातावरण मिलता है। यहाँ अन्य साथियों के बीच रहकर उनमें सामूहिकता की भावना का जन्म होता है तो धीरे-धीरे उनमें सामाजिक गुणों का विकास होता जाता है। स्वयं विद्यालय भी समाज द्वारा प्रभावित होते हैं और समाज के लिए वे एक उचित आदर्श उपस्थित करते हैं। डीवी ने तो विद्यालय को समाज का एक लघु रूप ही माना है। 


4. नागरिक के गुणों का विकास ( Development of Citizenship Virtues )- विद्यालय का एक प्रमुख कार्य यह भी है कि वह बालकों में नागरिकता के गुणों का विकास करे जिससे वे भविष्य में देश के आदर्श नागरिक बन सकें। इस दृष्टि से विद्यालय बालकों को समाज में अपना स्थान समझने की, अपने कर्तव्य एवं अधिकार समझने की तथा उनका उचित प्रयोग कर सकने की शिक्षा प्रदान करते हैं। इसके साथ ही विद्यालय उनमें नेतृत्व के गुणों का विकास करते है जिससे भविष्य में वे देश व समाज को योग्य मार्गदर्शन प्रदान कर सकें।


5.स्वास्थ्य विकास (Physical Development)- विद्यालय का एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी है कि इसमें शिक्षा प्राप्त करने वाले बालक अपने शारीरिक विकास व स्वास्थ्य के प्रति पूर्ण रूप से सजग हों। वस्तुत: मानव का मानसिक विकास शारीरिक विकास पर निर्भर है। यह कहा भी जाता है कि 'स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है।' अत: बालकों को स्वास्थ्यवर्धन व स्वच्छता का प्रशिक्षण देना भी विद्यालय का एक महत्वपूर्ण दायित्व है।


6. व्यावसायिक व औद्योगिक शिक्षा (Vocational and Industrial Education)- आज व्यावसायिक व औद्योगिक शिक्षा का महत्व बहुत बढ़ गया है। माध्यमिक कक्षाओं के बाद विद्यालय ही बालकों को उनकी रुचि के व्यवसाय में प्रशिक्षित करते हैं। विभिन्न व्यवसायों व उद्योगों की शिक्षा आज देश के औद्योगीकरण के लिए अत्यन्त आवश्यक हो गई है और इस कार्य को विद्यालय ही सम्पन्न कर सकते हैं। महात्मा गाँधी ने भी व्यावसायिक शिक्षा पर बल दिया है।


7. सांस्कृतिक विकास ( Cultural Development)- विद्यालय संस्कृति एवं सभ्यता की रक्षा करते हैं तथा उन्हें भावी पीढ़ी को प्रदान करते हैं। अत: विद्यालय को चाहिए कि वह न केवल संस्कृति की रक्षा करें वरन् उसमें सुधार भी करें तथा विभिन्न सामाजिक व वैज्ञानिक विषयों के रूप में भावी पीढ़ी को हस्तान्तरित करें। 


विद्यालय के अनौपचारिक कार्य (Informal Functions of School) -

1. छात्रों को विभिन्न उत्सवों के माध्यम से सामाजिक प्रशिक्षण देना।

2. खेल-कूद, स्काउटिंग, गाइडिंग, सैनिक शिक्षा आदि की व्यवस्था कर उन्हें शारीरिक प्रशिक्षण देना। 

3. उनकी रचनात्मक क्रियाओं को प्रोत्साहित करना। 

4. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, नाटकों, प्रदर्शनियों, चित्रकलाओं तथा संगीत सम्मेलनों आदि की व्यवस्था कर उन्हें भावात्मक प्रशिक्षण देना।


थाॅमसन (Thomson) के अनुसार विद्यालय का कार्य छात्रों को निम्न प्रकार के प्रशिक्षण देना है-

1. मानसिक प्रशिक्षण (पुस्तकीय ज्ञान व तर्कशक्ति का विकास) 

2. चारित्रिक प्रशिक्षण। 

3. सामुदायिक जीवन का प्रशिक्षण। 

4. राष्ट्रीय गौरव एवं देशभक्ति का प्रशिक्षण। 

5. स्वास्थ्य व स्वच्छता का प्रशिक्षण। 

यह भी पढ़े - 

1. विद्यालय प्रबंधन की अवधारणा तथा उद्देश्य व कार्यक्षेत्र।    2. बालक के समाजीकरण के प्रमुख कारक।                        3. संस्थागत नियोजन के उद्देश्य एवं सिध्दांत।




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