इस लेख में संस्थागत नियोजन के उद्देश्य एवं संस्थागत नियोजन के प्रमुख सिध्दांत के बारे में वर्णन किया गया है।
संस्थागत नियोजन के उद्देश्य (Objectives of Institutional planning)
1.नेतृत्व, स्वतंत्रता एवं सृजनात्मक शक्तियों को प्रोत्साहन
(Encouragement to Leadership, Freedom and Creative power) -
हमारा प्रथम उद्देश्य है शिक्षक में निहित नेतृत्व, स्वतंत्रता एवं सृजनात्मक शक्तियों को प्रोत्साहन प्रदान करना। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है क्योंकि शिक्षा के पुनर्निर्माण के लिए हमें इस क्षेत्र में कुछ विद्रोहियों, कुछ क्रांतिकारियों की आवश्यकता है।
यदि हम अपनी शिक्षा प्रणाली का विश्लेषण करें तो हमें ज्ञात होगा कि हमारी सामाजिक व्यवस्था की भांति ही यह प्रकृति में अत्यधिक अधिकारिक हैं। हम में से एक निरंकुश शासक तथा छोटा-मोटा तानाशाह है और शिक्षा विभाग की सामान्य कार्य पद्धति में हम व्यक्तिगत संस्था तथा कक्षाध्यापक को थोड़ी सी छूट एवं स्वाधीनता नहीं देते। यह भावना हमारे रक्त में इतने गहरे उतर गए हैं, कि हम इसकी असंगति का कभी आभाव भी नहीं होता।
2. शिक्षकों की प्रभाविता के अवसर प्रदान करना
(Creating opportunity for teacher effectiveness) -
दूसरा प्रश्न उन साधनों से संबंधित हैं जो श्रेष्ठ अध्यापकों को अधिक प्रभावकारी बनाने के लिए आवश्यक है। भारतवर्ष में हम एक बड़ी असमंजस की स्थिति में है। एक और हमारे पास ऐसे कार्यक्रम है जिन्हें कार्यान्वित करने के लिए हमें उचित व्यक्ति नहीं मिलते और यही कारण है कि अधिकांश में ये कार्यक्रम हमें वांछित फल प्रदान नहीं करते।
दूसरी और हमें आज भी हजारों की संख्या में ऐसे युवा,उत्साही और वास्तव में कुछ करने के लिए उत्सुक अच्छे शिक्षक मिलेंगे जो उचित अवसरों तथा समर्थन के अभाव में अपनी प्रतिभाओं को कुंठित होता देख बड़े असंतुष्ट और त्रस्त दिखाई देते हैं। इन उत्साही शिक्षकों को जो वास्तव में कुछ करना चाहते हैं हम किस प्रकार स्वाधीनता और सहायता प्रदान कर सकते हैं? जो कार्यक्रम हमारे सम्मुख है उसे क्रियान्वित करने के लिए हमें लोग कहां से मिलेंगे।
अगर हम कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर सके जिसमें नवीन कार्य के लिए इच्छुक शिक्षक को अपनी अभिव्यक्ति के लिए नया अवसर मिल सके, तो हमारी संप्राप्ति पर्याप्त होगी। जीव वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार हम शिक्षा संबंधी ऐसी जीवंत कोशिकाएं स्थापित करना चाहते हैं जहां सृजनात्मक चिंतन का सूत्रपात हो सके।
ये कोशिकाएं कितनी अल्प है अथवा वे कितनी बिखरी हुई है इसकी चिंता नहीं यदि हम किसी प्रकार ऐसे वातावरण की सृष्टि कर सके जो उन जीवन्त कोशिकाओं की रचना एवं उत्पत्ति के अनुकूल हो तो हमने सफलता की दिशा में पहला कदम उठाया है। समय के साथ-साथ इस संक्रमण का विस्तार भी होगा। इस प्रकार का जीवंत कोशिकाएं अधिक संख्या में बढ़ेगी और संपूर्ण व्यवस्था का विकास होने लगेगा।
3. शिक्षकों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करना
(Ensuring active participation of the teachers) -
तीसरी समस्या शैक्षिक योजना की प्रक्रिया में शिक्षकों के सक्रिय सहयोग की है। गत योजनाओं में किसी भी स्तर के शिक्षकों का संबंध योजना बनाने अथवा उसे क्रियान्वित करने में नहीं रहा है। वे इस संबंध में इतने उदासीन और तटस्थ रहे हैं कि उन्हें इतनी भी जानकारी नहीं की यह योजना क्या थी? सचिवालयो और शिक्षा निदेशालयो में ही योजनाओं की जानकारी है।
जिला स्तर पर कुछ अधिकारी इन योजनाओं से परिचित होते हैं, कुछ नहीं। बहुत बड़ी संख्या में लोगों के विचार इस संबंध में पर्याप्त अस्पष्ट और धुंधले होते हैं। एक औसत माध्यमिक विद्यालय के प्रधानाध्यापक और शिक्षक यह नहीं जानते कि शिक्षा की नवीन योजना क्या है क्योंकि उनका इस से कोई संबंध नहीं है। प्राथमिक स्कूलों ने कभी योजना के दर्शन ही नहीं किये।
ऐसा केवल इसलिए है कि हमारी संपूर्ण योजना विभिन्न मदों में आर्थिक नीति के निर्धारण तक ही सीमित रहती हैं और इसका संबंध वित्त - विभाग तथा सचिवालय के कुछ सदस्यों से होता है। आज योजना को क्रियान्वित करने का पूरा भार शिक्षकों पर ही होता है और कोई अन्य व्यक्ति उसे कार्यरूप दे भी नहीं सकता।
किंतु यदि शिक्षकों को इसका पता ही न हो कि योजना क्या है तो वे उसे कैसे लागू कर सकते हैं? संभवत एक बहुत बड़ा कारण है कि जिससे हमारी योजना सफलतापूर्वक लागू नहीं की जा सकी। यदि हम भविष्य में अच्छे परिणामों का इच्छा रखते हैं, तो यह स्पष्ट है कि हमें निर्माण एवं कार्य दोनों स्तरों पर विद्यालय के प्रत्येक सदस्य को भागीदार बनाना पड़ेगा।
4. अल्प संसाधनों का समुचित उपयोग -
(Proper utilization of meagre resources) -
यह चौथी और एक बहुत बड़ी समस्या इस बात की है कि जहां हमारे अनेक कार्यक्रमों के लिए साधनों का अभाव है, हमारे पास उपलब्ध साधनों एवं सुविधाओं का ऐसा विशाल भंडार भी है जिसका हम पर्याप्त उपयोग नहीं करते और उपयोग के अभाव में वह बेकार चला जाता है।
शिक्षा के क्षेत्र में अनेक कार्य किए जाने हैं भवनों का निर्माण होना है, नयी कक्षाएं खोली जानी है। नई संस्थाओं की स्थापना होनी है, उपकरण खरीदे जाने हैं, आदि आप सैकड़ों ऐसी वस्तुओं के उदाहरण दे सकते हैं जिन्हें करना है और जिन्हें करने के लिए करोड़ों रुपए की आवश्यकता पड़ेगी। किंतु इतना रुपया तो हमारे पास नही है। समस्या का यह एक पहलू है।
किंतु समस्या का दूसरा पहलू कम महत्वपूर्ण नहीं। सैकड़ों ऐसी वस्तुएं हैं जिन्हें हम आज की स्थिति में भी कर सकते हैं किन्तु जिन्हें कोई नहीं करता। जो प्रश्न हमें उठाना चाहिए, वह है वर्तमान परिस्थिति में और उपलब्ध साधनों की सहायता से मैं अधिक से अधिक क्या कर सकता हूं? यह पता लगाने के बाद हमें एक त्याग और उत्सर्ग की भावना से काम में जुट जाना चाहिए।
दूसरे शब्दों में हमें लोगों को प्रेरित करना पड़ेगा कि वह जो कुछ कर सकते हैं को मान्यता दें और उन्हें कार्यान्वित करें बजाय इसके कि वे अपना पूर्ण ध्यान चाहिए पर केंद्रित करें जबकि वे जानते हैं कि यह चाहिए अव्यावहारिक है।
संस्थागत नियोजन के सिद्धांत (Principles of Institutional planning) -
संस्थागत नियोजन प्रत्येक संस्था की आवश्यकताओं और संसाधनों को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है। अतः संस्थागत नियोजन के लिए कोई सार्वभौमिक सिद्धांत नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि यह सिद्धांत दूसरी संस्था के लिए अनुपयोगी भी हो सकता है लेकिन संस्थागत योजना तैयार करते समय कुछ सामान एवं विशिष्ट बातों पर ध्यान देना जरूरी होता है। अतः संस्थागत नियोजन के लिए निम्नलिखित सिद्धांत दिए जा सकते हैं-
1. लचीलेपन का सिद्धांत - प्रत्येक योजना का रूपरेखा के अनुसार ही सफल होना आवश्यक नहीं है अतः योजना में कुछ लचीलापन अर्थात आवश्यक परिवर्तन करने के लिए स्थान होना चाहिए। अतः कुछ परिवर्तनशील योजना भी अच्छी विद्यालयी योजना बन सकती हैं।
2. कुशल नेतृत्व का सिद्धांत - कहा जाता है कि एक अच्छी योजना अपने नेता के व्यक्तित्व को प्रदर्शित करती हैं। अतः जैसी नेतृत्व शक्ति कार्यरत होगी वैसी ही योजना बनेगी। इसलिए एक कुशल नेतृत्व विद्यालय के हितों को ध्यान में रखकर सर्वसम्मत विद्यालय योजना का निर्माण एवं संचालन कर सकता है।
3. मूल्यांकन एवं शोध का सिद्धांत - पिछली योजना के मूल्यांकन से प्राप्त परिणामों तथा शोध से प्राप्त परिणामों के आधार पर भी उचित एवं व्यवहारिक योजना तैयार की जा सकती हैं।
4. आवश्यकताओं के निर्माण का सिद्धांत - प्रत्येक संस्था की अपनी जरूरतें होती हैं। अतः इन आवश्यकताओं को आधार बनाकर विद्यालय प्रशासन अपनी विद्यालयी योजना तैयार कर सकता है।
5. लक्ष्यों के उचित निर्णयन का सिद्धांत - प्रत्येक विद्यालय की एक निश्चित विचारधारा होती है। इस विचारधारा के आधार पर संस्था के लक्ष्य तय किए जाते हैं। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने को आधार मानकर भी विद्यालयी योजना तैयार की जा सकती है।
6. भावी समस्याओं का सिद्धांत - किसी भी योजना के क्रियान्वयन के समय आने वाली परिस्थितियों एवं समस्याओं को ध्यान में रखकर अच्छी विद्यालयी योजना तैयार की जा सकती है।
7. उपलब्ध संसाधनों (मानवीय एवं भोतिक) के आधार का सिद्धांत - विद्यालय की जरूरतें पूरी करने में सक्षम उपलब्ध संसाधनों, चाहे वो मानवीय अर्थात शिक्षक एवं गैर शिक्षक कर्मचारी हो या भौतिक अर्थात भवन, प्रयोगशाला, वित्त एवं अन्य मदों हो, के आधार पर भी अच्छी संस्थागत योजना का निर्माण किया जा सकता है। लेकिन संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग द्वारा ही अच्छे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।
8. प्रजातांत्रिक वातावरण के निर्माण का सिद्धांत - किसी भी संस्था को कुशलपूर्वक संचालित करने के लिए एक अच्छे व मूल्यपरक वातावरण का होना अत्यंत आवश्यक है। अतः विद्यालय के सभी सदस्यों को क्षमतानुसार कार्य विभाजन कर प्रजातांत्रिक वातावरण के निर्माण को आधार मानकर संस्थागत योजना तैयार की जानी चाहिए।
9. वास्तविकता एवं व्यावहारिकता का सिद्धांत - किसी भी योजना का आदर्श योजना होना ही काफी नहीं है अपितु से वास्तविक एवं व्यावहारिक भी होना चाहिए। अन्यथा योजना का सफल होना संदिग्ध ही रहता है। इसलिए वास्तविक एवं व्यावहारिक मापदंडों को निर्धारित कर अच्छी संस्थागत योजना का निर्माण किया जा सकता है।
10. समयावधि का सिद्धांत - किसी भी उद्देश्य को एक निश्चित अवधि में प्राप्त करना अच्छी योजना का संकेत होता है। अतः समयावधि को ध्यान में रखकर योजना बनाई जा सकती है।
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