बालक का समाजीकरण करने वाले प्रमुख तत्व।

बालक का समाजीकरण करने वाले प्रमुख तत्व


बालक का समाजीकरण करने वाले प्रमुख तत्व

एक बालक जन्म के समय कोरा कागज होता है। जैसे-जैसे वह समाज के अन्य व्यक्तियों तथा सामाजिक संस्थाओं के सम्पर्क में आकर विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में भाग लेता रहता है वैसे-वैसे वह अपनी पाशविक प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण करते हुए सामाजिक आदर्शों तथा मूल्यों को सीखता रहता है। इस प्रकार बालक के समाजीकरण की यह प्रक्रिया निरन्तर चलती ही रहती है।

निम्नलिखित पंक्तियाँ उन महत्वपूर्ण तत्वों पर प्रकाश डाल रहती हैं जो बालक के समाजीकरण में सहायता प्रदान करते हैं-

1. धर्म- धर्म का बालक के समाजीकरण में महत्वपूर्ण योगदान है। हम देखते हैं कि प्रत्येक धर्म के कुछ संस्कार, परम्पराएँ, आदर्श तथा मूल्य होते हैं। जैसे-जैसे बालक अपने धर्म अथवा अन्य धर्मों के व्यक्तियों एवं समूहों के सम्पर्क में आता जाता है, वैसे-वैसे वह उक्त सभी बातों को स्वाभाविक रूप से सीखता जाता है।

2. जाति- जाति का मुख्य उद्देश्य बालक का समाजीकरण करना है। ध्यान देने की बात है कि प्रत्येक जाति की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ, परम्पराएँ, रीति-रिवाज तथा प्रथाएँ अलग-अलग होती हैं। अत: प्रत्येक जाति सदैव इस बात पर बल देती है कि इस जाति के बालक उक्त सभी बातों का अपनी ही जाति के अनुसार ग्रहण करें। यही कारण है कि प्रत्येक जाति के बालक का समाजीकरण अलग-अलग होता है।

3. खेल-कूद - प्रत्येक बालक खेल-कूद को पसन्द करता है। वह खेलते समय जाति-पाँति, ऊँच-नीच तथा अन्य प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठकर दूसरे बालकों के साथ अन्तःप्रक्रिया द्वारा आनन्द लेना चाहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खेल में सामाजिक अन्त:प्रक्रिया का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन होता है। खेलते ही खेलते बालक में प्रेम, सहानुभूति, सहनशीलता तथा सहयोग आदि अनेक गुण अनजाने में ही सहज में विकसित हो जाते हैं। संक्षेप में, खेल-कूद के द्वारा बालक के समाजीकरण में अत्यधिक सहायता मिलती है।

4. परिवार- बालक के समाजीकरण के विभिन्न तत्वों में परिवार का प्रमुख स्थान है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक बालक का जन्म किसी न किसी न किसी परिवार में ही होता है। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे वह अपने माता-पिता, भाई-बहनों तथा परिवार के अन्य सदस्यों के सम्पर्क में आते हुए प्रेम, सहानुभूति, सहनशीलता तथा सहयोग आदि अनेक सामाजिक गुणों को सीखता रहता है। यही नहीं, वह परिवार में रहते हुए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने परिवार के आदर्शो, मूल्यों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं तथा मान्यताओं एवं विश्वासों को भी शनैः शनैः सीख जाता है। अर्थात परिवार के सभी सदस्यों के साथ अन्त:क्रिया द्वारा बालक का समाजीकरण होता रहता है।

5. पास-पड़ोस- पड़ोस भी एक प्रकार का बड़ा परिवार होता है। जिस प्रकार बालक परिवार के विभिन्न सदस्यों के साथ अन्त:क्रिया द्वारा अपनी संस्कृति एवं सामाजिक गुणों का ज्ञान प्राप्त करता है, ठीक उसी प्रकार वह पड़ोस में रहने वाले विभिन्न सदस्यों एवं बालकों के सम्पर्क में रहते हुए विभिन्न सामाजिक बातों का ज्ञान प्राप्त करता रहता है। इस दृष्टि से यदि पडोस अच्छा है तो उसका बालक के व्यक्तित्व के विकास पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और यदि पड़ोस खराब है तो बालक के बिगड़ने की सम्भावना है। यही कारण है कि अच्छे परिवारों के लोग अच्छे ही पड़ोस में रहना पसन्द करते हैं।

6. विद्यालय- परिवार तथा पड़ोस के पश्चात् स्कूल ही एक ऐसा स्थान है जहाँ पर बालक का समाजीकरण होता है। स्कूल में विभिन्न परिवारों के बालक शिक्षा प्राप्त करने आते हैं। बालक इन विभिन्न परिवारों के बालक तथा शिक्षकों के बीच रहते हुए सामाजिक प्रतिक्रिया करता है जिससे उसका समाजीकरण तीव्र गति से होने लगता है। स्कूल में रहते हुए बालक को जहाँ एक ओर विभिन्न विषयों की प्रत्यक्ष शिक्षा द्वारा सामाजिक नियमों, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, मान्यताओं, विश्वासों तथा आदर्शों एवं मूल्यों का ज्ञान होता है वहाँ दूसरों ओर उसमें स्कूल की विभिन्न सामाजिक योजनाओं में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न सामाजिक गुणों का विकास भी होता रहता है। इस दृष्टि से परिवार तथा पड़ोस की भाँति स्कूल भी बालक के समाजीकरण का मुख्य साधन है।

7. स्काउटिंग तथा गर्ल गाइडिंग- स्काउटिंग तथा गर्ल गाइडिंग का भी बालक तथा बालिकाओं के समाजीकरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ये संगठन बालक तथा बालिकाओं को जनकल्याण के लिये सामूहिक कार्यों को करने के अवसर प्रदान करते हैं। इन कार्यों को करते हुए बालक तथा बालिकाओं में परस्पर सहयोग, त्याग एवं नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। स्पष्ट है कि स्काउटिंग तथा गर्ल-गाइडिंग भी बालक तथा बालिकाओं के समाजीकरण में अत्यधिक सहयोग प्रदान करते हैं।

8. समुदाय अथवा समाज- बालक के समाजीकरण में समुदाय अथवा समाज का गहरा हाथ होता है। प्रत्येक समुदाय अथवा समाज अपने-अपने विभिन्न साधनों तथा विधियों के द्वारा बालक का समाजीकरण करना अपना परम कर्त्तव्य समझता है। ये साधन हैं- जातीय तथा राष्ट्रीय प्रथाएँ एवं परम्पराएँ, मनोरंजन एवं राजनीतिक विचाराधाराएँ, धार्मिक कट्टरता, संस्कृति, कला, साहित्य, इतिहास, जातीय पूर्व धारणाएँ, वर्ग और वर्ण, सामाजिक परम्पराएँ और प्रथाएँ, सामाजिक सुविधाएँ, शिक्षा के साधन तथा अन्य सुविधाए।


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