समाजीकरण का अर्थ, विशेषताएँ तथा समाजीकरण की प्रक्रिया।

 

समाजीकरण क्या है


समाजीकरण का अर्थ (Meaning of Socialization) 


समाजीकरण उस प्रक्रिया को कहते हैं, जिससे एक 

जैविक प्राणी में सामाजिक गुण आ जाते हैं और वह प्राणी एक सामाजिक प्राणी कहलाया जाने लगता है। 


सोरोकिन के अनुसार, “समाजीकरण सांस्कतिक तथा वैचारिक कारको के अन्तरीकरण की प्रक्रिया है।"

वाटसन के अनुसार, “समाजीकरण एक सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है।" 

ग्रीन के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बच्चा सांस्कृतिक विशेषताओं, आत्म तथा व्यक्तित्व को प्राप्त करता है।"

जॉन्सन के अनुसार, “समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है, जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बनाता है।'

ड्रेवर के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक वातावरण से समायोजन करता है और सामाजिक मान्यता प्राप्त करके वह समाज का मान्य सहयोगी तथा कुशल सदस्य बनता है।"

हरलॉक के अनसार समाजीकरण की प्रक्रिया में तीन उप-प्रक्रियाएं शामिल होता है-


1 उचित व्यवहार करना- इसका तात्पर्य है, बालक सामाजिक समूह द्वारा स्वीकृत व्यवहार करे और हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक सामाजिक समह की उचित व्यवहार के सम्बन्ध में अपनी नियमावली होती है।

2. स्वीकत सामाजिक प्रकार्यों को करना- समाज द्वारा स्वीकृत प्रकार्यों को करने का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति उन सभी कार्यों का सम्पादन करे, जो उस विशेष स्थिति के साथ जुड़े हुए हैं जिसे वह समाज में रहकर प्राप्त करता है।


3. सामाजिक अभिवृत्ति का विकास- इसका तात्पर्य है 

कि व्यक्ति में एकीकरण तथा  सहयोग का भाव होना चाहिए, जिससे वह समाज के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित कर सके।


समाजीकरण की विशेषताएँ ( Characteristics of Socialization)-



1.सामाजिक अन्त:क्रियाएँ- जब कई व्यक्ति परस्पर मिलते हैं, तो उनमें कई प्रकार  की क्रियाएँ होती है। इन क्रियाओं में भाग लेते हुए वे एक-दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। ये समस्त क्रियाएँ 'अन्तक्रियाएँ' कहलाती है। अन्तक्रियाएँ होना यह प्रदर्शित करता है कि समाजीकरण उचित प्रकार से हो रहा है।


 2. सामाजिक अनरूपता- सामाजिक अनुरूपता से तात्पर्य सामाजिक मूल्यों, सामाजिक आदर्शों तथा सामाजिक परम्पराओं के अनुसार व्यवहार करने से हैं। जो व्यक्ति समाज के रीति-रिवाज, परम्पराओं, सामाजिक मान्यताओं, प्रथाओं तथा नियमों के अनुसार आचरण करता है, वही सुखी तथा तनाव रहित जीवन व्यतीत कर सकता है।


3. सामाजिक गतिविधियों में भाग लेना- सामाजिक कार्यों की कोई निश्चित सीमा नही होती। इसमें व्यक्ति अपनी योग्यता, क्षमता, आयु के आधार पर भाग ले सकता है। सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी करने से बालक की समाजीकरण की क्रिया में तीव्रता आ जाती है। सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी को सामाजिक विकास का लक्षण कहा जा सकता है।


4. सामाजिक समायोजन- कोई भी व्यक्ति समाज में यथोचित जीवनयापन कर सकता है। यदि वह समाज के सदस्यों के साथ उचित प्रकार से समायोजन स्थापित कर सकें। तालमेल, सहयोग, सहानुभूति, सहकारिता, करुणा, स्नेह आदि साधन समायोजन में सहायक होते हैं। सामाजिक समायोजन सामाजिक विकास का सूचक है।


5. सामाजिक परिपक्वता- जब कोई व्यक्ति अपनी इच्छा से सामाजिक मान्यताओं को अपनाता है तथा सामाजिक रीति-रिवाजों, परम्पराओं और नियमों का पालन करता है, सामाजिक कार्यक्रमों में सम्मिलित होता है और ऐसा करने पर उसके मन में किसी तरह का कोई तनाव नहीं होता है, असन्तोष नहीं उत्पन्न होता तो ऐसी स्थिति में यह कहा जा सकता है कि उसमें 

सामाजिक  परिपक्वता है। सामाजिक परिपक्वता सामाजिक विकास की सूचक होती है, जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि व्यक्ति सामाजिक रूप से जिम्मेदार हो गया है। 


समाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Socialization) 


समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा बालक को सामाजिक बनाया जाता है। इस प्रक्रिया में विभिन्न कारक हैं जिनमें से महत्वपूर्ण कारकों का वर्णन किया गया है- 

1. सामाजिक शिक्षण- अनुकरण के अतिरिक्त सामाजिक शिक्षण का भी बालक के समाजीकरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ध्यान देने की बात है कि सामाजिक शिक्षण का आरम्भ परिवार से होता है जहाँ पर बालक माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य सदस्यों से खान-पान तथा रहन-सहन आदि के बारे में शिक्षा ग्रहण करता रहता है।


2. निर्देश- सामाजिक निर्देशों का बालक के समाजीकरण में गहरा हाथ होता है। ध्यान देने की बात है कि बालक जिस कार्य को करता है उसके सम्बन्ध में वह दूसरे व्यक्तियों से निर्देश प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में, वह उसी कार्य को करता है जिसको करने के लिए उसे निर्देश दिया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि निर्देश सामाजिक व्यवहार की दिशा को निर्धारित करता है।


3. आत्मीयता- माता-पिता, परिवार तथा पड़ोस की अनुभूति द्वारा बालक में आत्मीयता की भावना का विकास होता है। जो लोग बालक के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हैं उन्हीं को बालक अपना समझने लगता है तथा इन्हीं के रहन-सहन, भाषा तथा आदर्शों के अनुसार व्यवहार करने लगता है।


4. अनुकरण- समाजीकरण का आधारभूत तत्व अनुकरण है। ध्यान देने की बात है कि बालक में अनुकरण का विकास परिवार तथा पड़ोस में रहते हुए होता है। दूसरे शब्दों में, बालक परिवार तथा पड़ोस के लोगों को जिस प्रकार का व्यवहार करते देखता है उसी का अनुकरण करने लगता है।


5. सहकारिता- समाज व्यक्ति को सामाजिक, बनाता है। दूसरे शब्दों में, समाज की सहकारिता बालक को सामाजिक बनाने में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। जैसे-जैसे बालक अपने साथ अन्य व्यक्तियों का सहयोग पाता जाता है वैसे-वैसे वह दूसरे लोगों के साथ अपना सहयोग भी प्रदान करना प्रारम्भ कर देता है। इससे उसकी सामाजिक प्रवृत्तियाँ संगठित हो जाती हैं।


6. पुरस्कार एवं दण्ड- बालक के समाजीकरण में पुरस्कार एवं दण्ड का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। जब बालक समाज के आदर्शों तथा मान्यताओं के अनुसार व्यवहार करता है तो लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। साथ ही वह समाज के हित को दृष्टि में रखते हुए जब कोई विशिष्ट व्यवहार करता है तो उसे पुरस्कार भी मिलता है। इसके विपरीत जब बालक असामाजिक व्यवहार करता है पुरस्कार एवं दण्ड का बालक के समाजीकरण पर महत्वपूर्ण प्रभाव है।


7. सहानुभूति- पालन-पोषण की भाँति सहानुभूति का भी बालक के समाजीकरण में गहरा प्रभाव पड़ता है। ध्यान देने की बात है कि शैशव अवस्था में बालक अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए परिवार के अन्य सदस्यों पर निर्भर रहता है। दूसरे शब्दों में, अन्य व्यक्तियों द्वारा बालक की आवश्यकताएँ पूरी की जाती हैं।

यहाँ इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है कि बालक की सभी आवश्यकताओं को पूरा करना ही सब कुछ नहीं है वरन् उसके साथ सहानुभूति की आवश्यकता भी है। इसका कारण यह है कि सहानुभूति के द्वारा बालक के अपनत्व की भावना विकसित होती है जिसके परिणामस्वरूप वह एक-दसरे में भेद-भाव करना सीख जाता है। वह उस व्यक्ति को अधिक प्यार करने लगता है जिसका व्यवहार उसके प्रति सहानुभूतिपूर्ण होता है।


8. पालन-पोषण- बालक के समाजीकरण में पालन-पोषण का गहरा प्रभाव पड़ता ह जिस प्रकार का वातावरण बालक को प्रारम्भिक जीवन में मिलता है तथा जिस प्रकार से माता-पिता बालक का पालन-पोषण  करते हैं उसी के अनुसार बालक में भावनाएं तथा अनुभूतियां विकसित हो जाती है इसका अर्थ यह है कि जिस बालक की देख-रेख उचित ढंग से नहीं होती उसमें समाज विरोधी आचरण विकसित हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में, बालक समाज विरोधी आचरण उसी समय करता है, जब वह समाज के साथ व्यवस्थापन नहीं कर पाता। इस दृष्टि से उचित समाजीकरण के लिए यह आवश्यक है कि बालक का पालन पोषण कैसे किया जाये। 




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