माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य (Aims of secondary education)
माध्यमिक शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। समय परिवर्तन के साथ, उद्देश्य बदलते रहे हैं। वर्तमान स्थिति में भारत की राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं और नयी - नयी समस्या सामने आ रही हैं। माध्यमिक शिक्षा बहुत से बालकों के लिए अंतिम सीढ़ी हैं। ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि शिक्षा के उद्देश्यों की ओर ध्यान दिया जाए। इस दिशा में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सर्वप्रथम 4 नवंबर, 1984 को 'विश्वविद्यालय आयोग' का गठन हुआ। इस आयोग में 10 सदस्य थे, डॉ. एस. राधाकृष्णन इसके अध्यक्ष थे। इस आयोग का गठन का उद्देश्य भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना था। इसके पश्चात माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) और कोठारी आयोग (1964-66) ने भी इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित उद्देश्यों की ओर संकेत किया है।
माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य -
प्रजातन्त्रात्मक नागरिकता का विकास (Development of democratic citizenship) - बालक बालिकाओं में धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र के दृष्टिकोण विकसित करने के लिए हमारी मुख्य कार्य उनका चारित्रिक विकास चरित्र के निर्माण के लिए प्रजातांत्रिक समाज की व्यवस्था में रचनात्मक योगदान दे सकेंगे इसके लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना होगा।-
स्पष्ट विचार- स्पष्ट विचार शक्ति का विकास करना और नए विचारों का आदर करना प्रजातंत्रात्मक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना है। इससे नागरिकों में पर्याप्त समझ एवं बौद्धिक स्थिरता का प्रादुर्भाव होता है और वह सत्य को मिथ्या से अलग कर सकता है तथा संकीर्णता एवं पक्षपात का खंडन कर सकता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण- विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास किया जाना चाहिए, ताकि निष्पक्ष भाव से प्रमाणित आंकड़ों के द्वारा वे निष्कर्ष निकाल सके।
जीवन के लिए शिक्षा- व्यक्ति के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए शिक्षा को उसकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, भावनात्मक और व्यावहारिक आवश्यकताओं की ओर ध्यान देना चाहिए। शिक्षा जीवन के लिए होनी चाहिए, परंतु इसके साथ-साथ स्वस्थ समाज और व्यक्तित्व के लिए भी।
सहनशक्ति का विकास- सहनशक्ति का विकास करना चाहिए, जिसके बिना न तो स्वास्थ्य की रक्षा हो सकती है और न ही प्रजातंत्र रह सकता है। यदि हमें अपने देश में प्रजातंत्र को जीवित रखना है- एक ऐसा देश जहां पर असंख्य विश्वासों, जातियों और संप्रदायों के लोग रहते हैं, तो शिक्षा को, युवकों में विशालता और उदारता की भावना का समावेश करना चाहिए, ताकि वे विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों का सुंदर समन्वय कर सके।
देश-भक्ति की भावना- बालकों में सच्ची देश-भक्ति की भावना का विकास करना चाहिए। इसके लिए अपने देश की सामाजिक और सांस्कृतिक सफलताओं की प्रशंसा करनी चाहिए। देश की त्रुटियों को उदार मन से स्वीकार करने के लिए तत्पर रहना चाहिए तथा उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। उनमें राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव की भावना निहित होनी चाहिए।
व्यावसायिक कुशलता का सुधार (Improvement of Vocation Efficiency) -
हमें विद्यार्थियों की उत्पादक अथवा तकनीकी और व्यवसायिक निपुणता के विकास पर ध्यान देना चाहिए। हमें उनके हृदय में काम के प्रति आस्था का भाव जागृत करना होगा, ताकि वे प्रत्येक प्रकार के छोटे-बड़े कार्य को बिना किसी भेदभाव के स्वीकार करें और उसमें संलग्न रहकर उसे पूरा करें।
उन्हें इस बात का अनुभव करना चाहिए की आत्म-निर्भरता और राष्ट्रीय प्रगति तभी संभव हो सकती है, यदि प्रत्येक व्यक्ति काम करें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही सेकेंडरी शिक्षा स्तर पर बालकों को विभिन्न अभिरुचियों का प्रशिक्षण देना चाहिए और उन्हें इस योग्य बनाना चाहिए कि वे सेकेंडरी पाठ्यक्रम समाप्त करने के पश्चात या तो व्यवसायिक कार्य करें या किसी तकनीकी संस्था में प्रवेश लेकर आगे प्रशिक्षण प्राप्त करें।
व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality) -
हमें विद्यार्थियों की रचनात्मक शक्तियों का विकास करना चाहिए, ताकि वे अपनी सांस्कृतिक परंपराओं की प्रशंसा कर सके। हमें उनके अंदर उचित रुचियों का समावेश करना चाहिए, ताकि वे अवकाश के समय उनका अनुसरण कर सकें और अपने भावी जीवन में सांस्कृतिक परंपरा के विकास में योगदान कर सकें। इसलिए शिक्षण कार्यक्रम में कला, शिक्षा, संगीत, नृत्य आदि विषयों को उचित स्थान मिलना चाहिए। इसके साथ अन्य प्रिय-क्रियाओं का भी विकास होना चाहिए।
नेतृत्व के लिए शिक्षा (Education for Leadership) -
अधिकांश सेकेंडरी विद्यार्थियों की शिक्षा स्तर पर ही समाप्त हो जाती हैं। इसलिए माध्यमिक शिक्षा को अपने आप में एक सम्पूर्ण इकाई समझना चाहिए, जिसके अपने ही कुछ विशेष उद्देश्य हो। सेकेंडरी विद्यालयों में सफल होने वाले ये विद्यार्थी, जो कॉलेजों या तकनीकी संस्थाओं में प्रवेश नहीं ले पाते, इस योग्य होने चाहिए कि वे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में काम कर सके और नेतृत्व की जिम्मेदारी भी निभा सके।
कोठारी आयोग(1964-66) के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य -
शिक्षा और उत्पादकता (Education and productivity) -
शिक्षा का उद्देश्य उत्पादन में वृद्धि होना चाहिए। विज्ञान और कार्यानुभव की शिक्षा, शिक्षा का एक अटूट अंग मानकर अपना लेना चाहिए और माध्यमिक शिक्षा को अधिक से अधिक व्यावहारिक रूप देना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर विभिन्न कार्यों का प्रशिक्षण देकर बालको में कार्य के प्रति रुचि पैदा की जानी चाहिए।
सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता (Social and National Integration) -
सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए देश में सामान्य स्कूल प्रणाली अपनायी जानी चाहिए। समाज सेवा निम्न सेकेंडरी स्तर पर 30 दिनों के लिए और हायर सेकेंडरी स्तर पर 20 दिनों के लिए (एक वर्ष में केवल 10 दिन) सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य कर देनी चाहिए। मातृभाषा हिंदी और अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं की शिक्षा का उचित प्रबंध होना चाहिए। राष्ट्रीय जागरण का विकास स्कूल शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए और इसके लिए विद्यार्थियों में अपनी सांस्कृतिक परंपरा को समझने तथा उसका पुनर्मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति का विकास करना चाहिए और उनके मन में भविष्य के प्रति दृढ़ विश्वास पैदा करना चाहिए।
शिक्षा और आधुनिकीकरण (Education and Modernisation) -
शिक्षा का संबंध जिज्ञासा को जानने, उचित अभिरुचियों, दृष्टिकोणों तथा मान्यताओं का विकास करने और स्वतंत्र अध्ययन, स्वतंत्र विचार तथा स्वतंत्र आत्म-निर्णय की आवश्यक कुशलताओं का निर्माण करने से होना चाहिए।
सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य (Social, Moral and Spiritual Values) -
आयोग ने धार्मिक तथा नैतिक निर्देशन समिति के सुझावों का समर्थन किया है और इस बात पर जोर दिया है कि इन मान्यताओं को स्कूल कार्यक्रमों का अभिन्न अंग बनाया जाए। स्कूली पाठ्यक्रम में प्रमुख धर्मों की चुनी हुई बातों को स्थान दिया जाना चाहिए, जो की नागरिकता संबंधी पाठ्यक्रम का यह अंग हो अथवा स्कूलों और कॉलेजों में प्रथम डिग्री तक सामान्य शिक्षा के आवश्यक अंग के रूप में आरंभ किया जाए।
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