बुनियादी शिक्षा-
यह शिक्षा भारत की राष्ट्रीय सभ्यता, संस्कृति एवं शिक्षा संगठन का आधार मानी गई है।
यह शिक्षा प्रत्येक बच्चे के लिए अनिवार्य आधारभूत शिक्षा स्वीकार की गई है।
यह शिक्षा प्रत्येक भारतीय की आधारभूत सामान्य संपत्ति हैं।
यह शिक्षा बालकों की आधारभूत आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों में घनिष्ठ संबंध स्थापित करती हैं।
यह शिक्षा सामुदायिक जीवन के आधारभूत व्यवसायों से संबंधित हैं।
यह शिक्षा सभी भारतीयों को ऐसा आधारभूत ज्ञान प्रदान करती हैं, जिससे उनको अपने पर्यावरण को बुद्धिमत्तापूर्वक समझने और प्रयोग करने में सहायता देती हैं।
यह शिक्षा किसी आधारभूत शिल्प के द्वारा दी जाती है, जिसका प्रयोग व्यक्ति अपने भावी जीवन के निर्वाह के लिए कर सकता है।
गांधीजी ने स्वयं बेसिक शिक्षा के संदर्भ में लिखा है - "बुनियादी शिक्षा बच्चों को चाहे वे नगरों के हो या ग्राम के, भारत के समस्त सर्वोत्तम और स्थायी बातों से संबंधित करती हैं।"
बेसिक शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1.बालकों में नागरिकता के गुणों का विकास करना,
2.बालकों का नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना,
3.भारतीय शिल्प एवं कुटीर उद्योगों को समुन्नत करना,
4.बालकों का शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास करना,
5.विद्यालयों एवं विद्यार्थियों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना,
6.बालकों को जीविकोपार्जन की शिक्षा प्रदान करना,
7.सर्वोदय समाज की संकल्पना को साकार करना।
बुनियादी शिक्षा की विशेषताएं -
बुनियादी शिक्षा को टी. एस. अविनाश लिंगम ने महात्मा गाँधी द्वारा दिया गया 'अंतिम और सबसे अधिक मूल्यवान उपहार' कहा है। इसका कारण यह है कि इसमें निम्नलिखित विशेषताएं पाई जाती हैं-
1. कक्षा 5 तक बालक-बालिकाओं के लिए समान कक्षाओं एवं समान पाठ्यक्रम है।
2. कक्षा 5 के बाद वह सह-शिक्षा समाप्त कर विद्यालय में पृथक पृथक व्यवस्थाएँ
3. कक्षा 6 एवं 7 में बालिकाओं के लिए ग्रह-कला के शिक्षण की व्यवस्था
4. कक्षा 7 एवं 8 में सभी विषयों की शिक्षा समान रूप से प्रदान करना (केवल बालिकाओं के वैकल्पिक विषयों को छोड़कर)
5. पाठ्यक्रम में अंग्रेजी एवं धार्मिक शिक्षा को प्रतिबंधित करना।
बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत -
बुनियादी शिक्षा के प्रमुख सिध्दांत निम्नलिखित है-
1. जनसामान्य की शिक्षा - भारतवर्ष में निरीक्षरता को दूर करने के लिए जन-जागृति उत्पन्न करने के लिए, जन सामान्य को शिक्षित करना आवश्यक है। राष्ट्रपिता ने इसी सिद्धांत की पूर्ति के लिए इसे जनमानस से जोड़ने का सफल प्रयास किया था। उनके अनुसार- 'जनसाधारण की अशिक्षा- भारत का पाप एवं कलंक है जिसका अंत किया जाना अनिवार्य है।'
2. निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा - गाँधीजी ने देश की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा व्यवस्था के सिद्धांत को स्वीकार किया था। इस विचार की पूर्ति स्वतंत्र भारत के संविधान में सभी नागरिकों को आधार माना गया-' जब तक सभी बच्चे 14 वर्ष की अवस्था पूर्ण नहीं कर लेगे तब तक राज्य उनको नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।
3. स्वावलंबी शिक्षा - गांधी जी ने कहा है कि स्वावलंबी शिक्षा सच्ची शिक्षा हैं। इसका तात्पर्य यह है कि शिक्षा से पूँजी के अतिरिक्त वह सभी धन मिल जाना चाहिए, जो उसे प्राप्त करने में व्यय किया जाये।
4. सामाजिक शिक्षा - बेसिक शिक्षा के दूरगामी परिणाम होंगे जिससे भावी समाज में शोषण एवं स्वार्थपरता के चिन्ह नष्ट हो जायेंगे। नवनिर्मित समाज प्रेम, सहयोग, सहानुभूति तथा न्याय के आदर्शों के अनुरूप होगा। बालकों में सच्चाई, ईमानदारी तथा अहिंसा के गुणों का विकास होगा।
रायबर्न ने इस सिद्धांत की समीक्षा में लिखा है- "बुनियादी विद्यालय एक वास्तविक सामाजिक इकाई बन जाता है और बच्चों को साथ-साथ रहने की कला का वास्तविक प्रशिक्षण मिल जाता है।"
5. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा - बेसिक शिक्षा में राष्ट्रीय साहित्य तथा संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम में स्वीकार किया गया था। तात्कालिक ब्रिटिश प्रभाव को उदासीन करने के उद्देश्य से अंग्रेजी भाषा को निष्कासित कर दिया गया।
बुनियादी शिक्षा का पाठ्यक्रम -
बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय निर्धारित किये गये-
1.प्राथमिक बेसिक कक्षाओं का पाठ्यक्रम
(क) क्रियात्मक पाठ्यक्रम -
(i) कृषि, बागवानी, आदि की शिक्षा
(ii) कताई, बुनाई एवं सम्बन्धित कला की शिक्षा।
(ख) ज्ञानात्मक पाठ्यक्रम -
(i) भाषा
(ii) गणित
(iii) सामाजिक विषय (इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र)
(iv) कृषि एवं सामान्य विज्ञान
(v) शारीरिक व्यायाम शिक्षा।
2.उत्तर बेसिक कक्षाओं का पाठ्यक्रम
इसके अंतर्गत 11 से 14 वर्ष के बालक-बालिकाओं के शिक्षण की व्यवस्था की जाती है। बालक-बालिकाओं की शिक्षा पृथक-पृथक होती है, किंतु उनके लिए निर्धारित पाठ्यक्रम एक समान होते हैं उत्तर बेसिक कक्षाओं के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम निम्नलिखित हैं-
(क) क्रियात्मक हस्तकला तथा सम्बन्धित कला -(अ) कृषि, (ब) कताई-बुनाई, (स) पुस्तक कला, (द) चर्मकला, (य) काष्ठ कला, (र) गृह कला (केवल महिलाओं के लिए), (ल) सिलाई।
(ख) ज्ञानात्मक पाठ्यक्रम - (अ) हिन्दी (संस्कृत सहित), (ब) गणित (अंकगणित,बीजगणित, रेखागणित), (स) सामाजिक शास्त्र (इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र), (द) सामान्य ज्ञान, (य) अंग्रेजी, (र) एक भारतीय भाषा (बंगाली, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती या उर्दू), (ल) एक शास्त्रीय भाषा - संस्कृत, अरबी या फारसी, (व) संगीत, (श) वाणिज्य, (ष) कला।
इस पाठ्यक्रम में अंग्रेजी भाषा को वैकल्पिक विषयों के वर्ग के अंतर्गत रखा गया था। मातृभाषा को अनिवार्य रूप से लागू किया था। उत्तर प्रदेश में हस्तकला के साथ-साथ तत्संबंधित कला को एक अनिवार्य विषय बनाया गया था। जिन विद्यालयों में सामान्य ज्ञान के शिक्षण की उचित व्यवस्था नहीं थी, वहां हस्तकला को इसके स्थान पर लागू किया गया था।
बेसिक शिक्षण विधि -
बेसिक शिक्षा की शिक्षण विधि अन्य पारस्परिक विधियों से पूर्ण पृथक है। बेसिक शिक्षण के अंतर्गत हस्त-कलाओ पर जोर दिया गया है तथा अन्य विषयों को इन हस्त-कलाओं के द्वारा शिक्षण का प्रावधान किया है। इस प्रकार इस शिक्षण विधि में हस्त-कौशलो को विभिन्न विद्यालयी पाठ्यक्रमों में सह-सम्बंधित करके पढ़ाया जाता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित शिक्षण विधियों को प्रयुक्त किया जाता है-
1.क्रमानुसार शिक्षण विधि- बेसिक शिक्षा के संपूर्ण कार्यक्रम को सात क्रमिक पदों में विभाजित किया गया तथा प्रत्येक स्तर के अनुकूल पाठ्यक्रमों की योजना बनाई गई थी। इस प्रकार बेसिक शिक्षा में बालकों के शारीरिक, मानसिक विकारों को क्रमिक रूप से संतुष्ट करने का प्रयास किया गया था।
2. क्रिया-विधि- बालक इस पद्धति में सक्रिय एवं सृजनशील बना रहता है। यह शिक्षा केवल कक्षा की चाहरदीवारी में बंद श्रोता के रूप में प्रदान नहीं की जाती, बल्कि छात्र कृषि कार्य, हस्त-कलाएँ, बागवानी आदि कार्य सामूहिक रूप से करते हैं। बालक में इससे श्रम का मूल्य, परिश्रम तथा कार्य के प्रति उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है।
3. सह-सम्बन्ध विधि - इस शिक्षा के अंतर्गत हस्त-कौशलों को केंद्रित स्थान में रखकर अन्य विद्यालयों के विषयों को सह-सम्बंधित किया गया है जिससे बालकों के भावी जीवन में उनकी उपयोगिता सिद्ध हो सके। इसके अतिरिक्त बालकों को हस्त-कलाओं के चयन, कौशल-प्रशिक्षण, कार्य-शैली की गुणवत्ता प्रदर्शन आदि की छूट प्रदान की जाती है। अतः यह शिक्षा पद्धति बालक को केंद्रीय भूमिका प्रदान करती है, उसे उसके वातावरण, व्यवसाय एवं वास्तविक जीवन से जोड़ने का सफल प्रयास करती है।
4. अनुकरण विधि - बालक घर, विद्यालय तथा सामाजिक कार्यों में सहभागिता एवं प्रशिक्षण के समय अनुकरण द्वारा सीखता है। इन विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति उत्तम प्रशिक्षण एवं हस्त-कौशलो में निपुणता के उपरांत की जाती थी। अतः वे स्वयं व्यावहारिक एवं कौशलात्मक कार्यों के लिए प्रेरणा स्त्रोत की तरह कार्य करते थे।
5. निरीक्षण विधि - बालकों के निरीक्षण, पथ-प्रदर्शन का कार्य सुयोग्य शिक्षकों द्वारा किया जाता था। वे प्रतिभाशाली छात्रों को पहचान कर उन्हें हस्त-कलाओं में दक्षता तथा सामान्य बालकों को उत्तम कार्य के लिए प्रेरित करते थे। कक्षाओं में भी शिक्षक-छात्र संबंध मधुर एवं निकटस्थ थे। अतः शिक्षक बालकों की कक्षीय उन्नति का भी लेखा-जोखा रखते थे। निरीक्षण विधि के अंतर्गत अभ्यास विधि, मौखिक विधि, प्रश्नोत्तर विधि तथा कार्य अवलोकन, प्रदर्शन विधियों का प्रयोग किया जाता था।
यह भी पढ़े -
1. संस्थागत नियोजन के उद्देश्य व सिद्धांत।
2. समय विभाग चक्र निर्माण के सिद्धांत