सिस्टम विकास जीवन चक्र। System development life circle in hindi

सिस्टम विकास जीवन चक्र


सिस्टम विकास चक्र अथवा सिस्टम विकास जीवन चक्र सिस्टम की समस्याओं के समाधान हेतु एक क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित तरीका है। 


० सिस्टम की समस्याओं से अभिप्राय

1) वैसी स्थितियों जो वास्तविक हो अथवा पूर्वानुमानित हो जिसे ठीक

करने की जरूरत हो। 

2) शिकायतों के बिना भी स्थिति को बेहतर बनाने के अवसर उपलब्ध हों। 

3) स्थिति को बदलने हेतु निर्देश जबकि किसी वर्तमान स्थिति के बारे में कोई शिकायत न की हो। 


० सिस्टम विकास जीवन-चक्र के विभिन्न चरण:

सिस्टम विकास जीवन-चक्र के विभिन्न चरण अथवा विभिन्न अवस्थाएँ जहाँ हम क्रमवार सिस्टम विकास का कार्य करते हैं, इस तरह हैं: 

1) समस्याओं का अध्ययन 

2) योजना बनाना 

3) सिस्टम विश्लेषण 

4) सिस्टम डिजाइन 

5) प्रोग्राम का विकास 

6) प्रोगाम की जाँच 

7) सिस्टम कार्यान्वयन 

8) रखरखाव


(1) समस्याओं का अध्ययन:

किसी समस्या को हल करने से पहले समस्या को पूरी तरह जानना एवं समझना जरूरी होता है। किसी उम्मीदवार सिस्टम का आधार आवश्यकताओं को पहचानना होता है ताकि सूचना तंत्र को सुधारा जा सके।

उदाहरण हेतु खरीद विभाग का कोई सुपरवाईजर निरीक्षण करता है। इस निरीक्षण के माध्यम से वह विभाग की कमियों को दूर कर सकता है अथवा उसमें और ज्यादा सुधार कर सकता है।

अगर समस्या जटिल है तो मैनेजमेंट इसको हल करने हेतु एनालिस्ट की मदद भी ले सकता है। यह एनालिस्ट संस्था के बाहर से भी बुलाया जा सकता है।

बड़े संगठनों में एनालिस्ट समस्या को परिभाषित करता है, फिर उसको हल करने का प्रयत्न करता है । इस चरण में एनालिस्ट किसी प्रोजेक्ट (सिस्टम) के विकास में आने वाली लागत का सही अनुमान नहीं लगा पाता है। यह अनुमान अगले चरण में ही लगा पाता है। 


(2) योजना बनाना: 

प्रारंभिक सर्वेक्षण के परिणाम के आधार पर सर्वेक्षण को आगे बढ़ाकर सिस्टम की साध्यता का अध्ययन किया जाता है। साध्यता के अध्ययन के समय वस्तुत: यह देखा जाता है कि प्रयोक्ता की आवश्यकता क्या है एवं सिस्टम इनकी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होगा कि नहीं। सिस्टम हेतु कौन-कौन से समाधान उपलब्ध है एवं इन संसाधनों के आधार पर समस्या का समाधान कितना मुश्किल है? इसके अलावा संगठन पर इस सिस्टम का क्या प्रभाव पड़ेगा? यह संगठन के मुख्य योजना के साथ कैसे सांमजस्य बना पाएगा। 


(3) सिस्टम विश्लेषण:

सिस्टम विकास जीवन चक्र के इस चरण में सिस्टम के द्वारा संपन्न किये जाने वाली विभिन्न क्रियाओं एवं सिस्टम के अंदर और बाहर उन क्रियाओं के संबंधों का विस्तृत अध्ययन किया जाता है । इस चरण में प्रमुख रूप से समस्या के उत्कृष्ट समाधान की संभावनाओं पर विचार होता है । समस्या के हल हेतु क्या किया जाना चाहिए, यह मुख्य प्रश्न विश्लेषक के दिमाग में होता है। इसमें सिस्टम के वातावरण एवं इसकी सीमा का भी गहन अध्ययन करना होता है। इसके लिए विभिन्न माध्यमों से डाटा एकत्र होता है।

 

(4) सिस्टम डिजाइन:

सिस्टम विकास जीवन चक्र में यह चरण सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण होता है। इस चरण में सिस्टम के विश्लेषक के सामर्थ्य का सही उपयोग होता है एवं सिस्टम विश्लेषक की रचनात्मक क्षमता भी प्रकट होती है। जिस तरह आर्किटेक्ट भवन-निर्माण की शुरूआत करने से पहले उस भवन का पूरा नक्शा बनाता है, उसी तरह सिस्टम विश्लेषक पूरे सिस्टम की रूपरेखा तैयार करता है। सिस्टम की रूपरेखा कलम एवं कागज की मदद से भी तैयार करते हैं एवं आधुनिक सिस्टम विश्लेषक कम्प्यूटर की मदद से भी इसे डिजाइन कर सकते हैं।


(5) प्रोग्राम का विकास: 

इस चरण में सिस्टम विश्लेषक सिस्टम के आकार एवं कंपनी की माँग को देखते हुए प्रोग्राम स्वयं तैयार करता है अथवा विभिन्न प्रोग्रामरों को सौंपता है। प्राय: सिस्टम विश्लेषक प्रोग्राम को स्वयं तैयार नहीं करता वरन् इस कार्य को अपने प्रोग्रामरों से करवाता है। कुछ परिस्थितियों में सिस्टम विश्लेषक स्वयं भी प्रोग्राम को लिखने का कार्य करता है। सिस्टम विश्लेषक प्रोग्रामरों को उनकी क्षमता के अनुसार प्रोग्राम तैयार करने को कहता है।

 

(6) प्रोग्राम परीक्षण: 

प्रोग्राम बन जाने के बाद प्रोग्राम का व्यक्तिगत परीक्षण होता है तथा अगर कई प्रोग्रामरों ने भिन्न-भिन्न प्रोग्राम तैयार किए हैं तो उनको संकलित करके एक इंटिग्रेटेड सॉफ्टवेयर का रूप देते है एवं फिर पूरे सिस्टम का परीक्षण होता है।

सिस्टम परीक्षण हेतु हम इसे कई दिनों तक इसमें मनपसंद डाटा इनपुट करते हैं एवं आउटपुट प्राप्त करते हैं । इस सिस्टम को जाँच के लिए कई दिनों तक रखा जाता है एवं इसके विभिन्न पहलुओं पर इसकी जाँच की जाती है । सिस्टम हर दृष्टिकोण से सफल होने पर इसके अगले चरण अर्थात् कार्यान्वयन हेतु ले जाया जाता है।

(7) सिस्टम कार्यान्वयन

सिस्टम कार्यान्वयन, सिस्टम विकास जीवन चक्र का अंतिम चरण होता है। इस चरण में प्रयोक्ता नये सिस्टम पर कार्य करना शुरू कर देते हैं । कार्य को शुरू होने से पहले उस कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए हार्डवेयर एवं सॉफ्टवेयर की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर ली जाती है। इस चरण का सबसे महत्वपूर्ण कार्य प्रयोक्ता को प्रशिक्षण देना होता है। सिस्टम जितना ज्यादा जटिल होगा, प्रयोक्ता को उसी अनुपात में ज्यादा प्रशिक्षण की जरूरत होती है। इसके अलावा सिस्टम कार्यान्वित होने के बाद पुराने सिस्टम को प्रतिस्थापित किया जाता है। पुराने सिस्टम को तब तक साथ-साथ चलाया जाता है जब तक कि नया सिस्टम का पूरी तरह कार्य शरू न हो जाये । नए सिस्टम को कार्यान्वित करने के बाद सिस्टम के बारे में हर स्तर के प्रयोक्ता की टिप्पणी ली जाती है एवं उन सभी लोगों की टिप्पणी के आधार पर सिस्टम की सफलता निश्चित होती है। इस प्रक्रिया को सिस्टम का मूल्यांकन कहते हैं। 


(8) रख-रखाव-

सिस्टम के सफल क्रियान्वयन के बाद सिस्टम के रख-रखाव का दौर शुरू होता है। इस चरण की सीमा नहीं होती है। यह चरण तब तक चलता है जब तक कि नए सिस्टम की जरूरत न हो। इस सिस्टम में प्राय: सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर दोनों के रख-रखाव का कार्य होता है। उदाहरणार्थ डाटा का एक सीमा से ज्यादा संग्रहण होने पर हार्डवेयर को अपग्रेड करने की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा उदाहरण के रूप में भारत में GST (Goods and Service Tax) के आने से पुराने सिस्टम में बदलाव की जरूरत पड़ेगी। ये सभी कार्य रख-रखाव के दायरे में आते हैं।



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